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________________ ३२८ | अप्पा सो परमप्पा में परिपक्व न हो जाए। जब साधक परिपक्व हो जाए, अथवा उच्च गुणस्थान या वीतरागता की भूमिका पर पहुँच जाए, तब नदी पार होने के बाद नौका को छोड़ देने की तरह, उक्त आलम्बन को छोड़ देना चाहिए । यों भी थोड़ी-सी उच्च भूमिका पर आरूढ़ हो जाने पर साधक को नीची भूमिका के आलम्बनों को छोड़ देना चाहिए। जैसे- बच्चा बचपन में खिलोने आदि का आलम्बन लेता है, किन्तु वयस्क होने पर उन सब आलम्बनों को छोड़ देता है, वैसे ही विवेकी साधक को साधना में आगे बढ़ जाने पर नवदीक्षित आदि की पूर्व भूमिका के आलम्बनों को छोड़ते रहना चाहिए । बृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है "सीहं पालेइ गुहा, अविहाउं तेण सा महिड्डिया । तस्स पुण जोग्वणम्मि, पओअणं किं गिरिगुहाए ?"1 " गुफा बचपन में सिंह - शिशु की रक्षा करती है । तभी तक उसकी उपयोगिता है । जब वह सिंह तरुण हो गया तब फिर उसके लिए गुफा का क्या प्रयोजन है ?" जिस प्रकार एम० ए० पढ़े हुए विद्यार्थी को उससे पहले की कक्षाएँ या पाठ्य-पुस्तकें छोड़ देनी होती हैं, वैसे ही उच्च श्रेणी पर पहुँचे हुए साधक को नीची श्रेणी के समय लिये जाने योग्य आलम्बन छोड़ देने चाहिए । परावलम्बन का त्याग कर निरालम्बी बनो साधक के लिए परमात्मप्राप्ति के लक्ष्य की ओर द्रुतगति से पहुँचने हेतु उत्कृष्ट मार्ग तो निरालम्ब (केवल शुद्धात्मावलम्बी रहने) का है । साधक जितना जितना बाह्यालम्बन ग्रहण करता है, उतना उतना वह परावलम्बी एवं पराधीन बनता है । पराधीन सपने हु सुख नाहीं' गोस्वामी तुलसीदास जी की यह उक्ति अक्षरशः सत्य है । अतः साधक जितना-जितना परावलम्बन पराधीनत्व छोड़ता है, उतनी ही उतनी उसकी आत्मा तेजस्वी, बलवान्, शुद्ध और परमात्मभाव के निकटतर पहुँचती है । आचारांग सूत्र में बताया गया है कि जो साधक अपने विनय ( ज्ञानादि चतुष्टय) में महान् है, जिसका मन सम्यग्दृष्टि से बाहर नहीं १ बृहत्कल्पभाष्य २११४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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