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आलम्बन: परमात्म प्राप्ति में साधक या बाधक ? | ३१७
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गति, जाति, इन्द्रिय, योग, पर्याप्ति, कषाय, लेश्या आदि वर्णन पढ़ने से इन सब जीवों के अस्तित्व का सम्यग्ज्ञान करने के साथ-साथ अप्प समं मशिज्ज छप्पिकाए - - इस वीतराग वचन के अनुसार आत्मोपम्य भावना उत्पन्न होती है, तथा इनमें भी मेरे ही समान आत्मा है, पूर्वजन्मकृत पुण्य-पाप कर्म के अनुसार इनकी चेतना का विकास अल्पतम, अल्लतर एवं अल्प हुआ है । इन सबको भी मेरी ही तरह अपना-अपना जीवन प्रिय है । 2 इन्हें किसी भी प्रकार का कष्ट पहुँचाना, कुचलना, मारना पीटना, सताना, डराना, बन्धन में डालना आदि नाना प्रकार से हिंसा करना है । ये सब हिंसाएँ इनकी नहीं, परन्तु अपनी हैं। वह अपनी आत्मा के गुणों की हिंसा करके पाप कर्म बाँध कर अपने लिए जन्म-जरा-मरणव्याधि, अंग विकलता, दरिद्रता, विपत्ति, संकट आदि दुःखों को निमन्त्रण देता है । क्योंकि जीवों का वध अपना ही वध है, जीवों की दया अपनी ही आत्मदया है | श्रमण इसलिए कहलाता है, जो अपने समान दूसरों के लिए विचारता है, जैसे- मुझे दुःख प्रिय नहीं है वैसे ही सभी जीवों को दुःख प्रिय नहीं है, यह जानकर जो किसी भी प्राणी की हिंसा न करता है, और न ही करवाता है । मुझे इन हिंसाओं से बचकर समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री, आत्मोपम्य, दया, क्षमा, करुणा, अनुकम्पा, सहानुभूति आदि विधेयात्मक अहिंसा की भावना लानी चाहिए । साथ ही यह प्रेरणा भी धर्मसाधक को इन प्राणियों से लेनी चाहिए कि इन वेचारे प्राणियों को अज्ञान, मोह, मिथ्यात्व एवं राग-द्व ेष, कषाय आदि के कारण नीच गतियाँ और कुयोनियां प्राप्त हुईं। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय. तक के तिर्यञ्चों को माया, गूढ़माया, छल-कपट, तौल-माप आदि में बेईमानी, ठगी, धूर्तता आदि के कारण ही तिर्यञ्चयोनि मिली है, तथा पंचेन्द्रिय नारकियों को भी निर्दोष
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उत्तराध्ययन सूत्र
२ सव्वेसि जीवियं प्रियं नाइवाएज्ज कंचणं
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(क) तुमंसि नाम तं चैव जं हंतव्त्रं ति मन्नसि, तुमं सिनाम तं चैव जं अज्जावेयव्वं ति मनसि । तुमं सिनाम तं चैव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि । (ख) जीववहो, अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया होइ (ग) जह मम णपियं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं ।
न हणइ
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- आचारांग १/२/३
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- आचारांग १/५/५ भक्तपरिज्ञा ६३
हणावेइ वा सममणइ तेण सो समणो । - अनुयोगद्वार १२६.
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