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२८८ | अप्पा सो परमप्पा
प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती है, जिसे वह अपने अन्दर समाविष्ट कर लेता है। स्थूलदृष्टि वाले लोगों को ऐसा लगता है कि साधक ने परमात्मा की शरण स्वीकार करके अपने आपको खो दिया। अपने आपको उसने मिटाकर परमात्मा के चरणों में सर्वस्व समर्पित कर दिया । इसलिए समर्पणकर्ता साधक घाटे में रहा। किन्तु ऐसी बात नहीं है। नियमानुसार ऊजा का प्रवाह दोनों ओर से प्रवाहित होता है। समर्पित साधक अपनी ऊर्जा परमात्मा के प्रति छोड़ता है तो परमात्मा की ओर से उसे प्रचुर मात्रा में कई गुनी अधिक ऊर्जा प्राप्त होती है। कलकत्ता के पास जो गंगा नदी है वह गंगासागर की ओर बहती है, जबकि गंगासागर भी गंगा की ओर बहता है। गंगा गंसासागर की शरण में जाकर उसमें विलीन हो जाती है, अपना नाम-रूप सब खो देती है। इससे गंगा कुछ खोती नहीं है, बल्कि पहले से अधिक पानी पाती है, क्योंकि गंगासागर गंगा की ओर आता है और उसे अपना पानी प्रचुरमात्रा में देता है।
इसी प्रकार जो साधक अनन्त-ज्ञानानन्द के सागर परमात्मा की शरण स्वीकार करके अपने अहंत्व ममत्व को सर्वथा खो देता है, परमात्मा के चरणों में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है, अपने माने हुए स्व-कल्पित सभी पदार्थो को तथा अपने आपको भी प्रभु के समक्ष विसर्जित कर देता है । वह साधक भी खोता नहीं, अधिकाधिक पाता है। क्योंकि परमात्मा के अनन्त ज्ञान, दर्शन, शक्ति और आनन्द का जो विशाल ऊर्जा स्रोत व्याप्त है, उससे वह अधिकाधिक ऊर्जा प्राप्त करके अपनी आत्मा में समा. विष्ट कर लेता है। शरणागति की उच्च भूमिका पर आरूढ़ साधक यदि गहराई में उतर कर परमात्मा के निजी गुणों का-उनके स्वरूप और स्वभाव का ध्यान करता है, उनके सौम्य रूप को अन्तःकरण में स्थिर करके त्राटक करता है, तो वीतराग परमात्मा की पवित्र ऊर्जा के परमाण साधक में तेजी से प्रविष्ट होने लगते हैं। परमात्म भाव के ऊर्जा परमाणु प्रचुर मात्रा में संचित होने से शरणागत साधक भी उनकी कृपा से एक दिन परमात्मपद, परमशान्ति एवं शाश्वत मोक्षधाम को प्राप्तकर लेता है। इससे भगवद्गीता में भी कहा है
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत !
तत्प्रसादात् परां शान्ति स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥ हे अर्जुन ! शुद्ध आत्मा के सर्वभावों से भावित होकर उसी परमात्मा की अनन्य शरण प्राप्त कर लो, फिर उनकी कृपा से परमशान्ति
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