SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१४ | अप्पा सो परमप्पा परमात्मा के शरीरादि भी नहीं दीखते । इसका तात्पर्य यह है कि जिन(वीतरागपरमात्म-) दशा वास्तव में शरीरादि से सम्बन्धित नहीं है। वह है-आत्मा के पूर्ण विकास (तेरहवें गुणस्थान) की दशा । जिसे केवलज्ञानी के सिवाय दूसरा नहीं देख सकता। वीतराग की भौतिक ऋद्धि के दर्शन उनके वास्तविक दर्शन नहीं सामान्य जनता नेत्रों से दिखाई देने वाले अष्टमहाप्रातिहार्य को वीतराग (जिन) परमात्मा समझ लेती है । अष्टमहाप्रातिहार्य ये हैं (१) अशोक वृक्ष, (२) देवों द्वारा अचित्त पुष्पवृष्टि, (३) दिव्य ध्वनि, (४) चामर ढलाना, (५) स्फटिक सिंहासन, (६) प्रभु के मस्तिष्क के चारों ओर भामण्डल (प्रभाव लय), (७) देवों द्वारा दुन्दुभिवाद्य बजाना, और (८) एक के ऊपर एक तीन छत्र धारण । इसके अतिरिक्त देवों का आगमन इत्यादि तथा चौंतीस अतिशय (चमत्कार) और पैंतीस वचनातिशय भी तीर्थंकर परमात्मा के होते हैं। किन्तु ये सब तीर्थंकर नामकर्म की अतिशय पुण्य राशि के कारण प्राप्त होती हैं। ये कोई आत्मिक गुण नहीं हैं । ये भौतिक उपलब्धियाँ वीतराग सदेह परमात्मा के शरीर के दर्शन हैं, वीतराग आत्मा के दर्शन नहीं। ऐसे कई चमत्कार तो एक ऐन्द्रजालिक या मायावी जादूगर भी बता सकता है। इसीलिए आचार्य समन्तभद्र ने 'देवागमस्तोत्र' में कहा है देवागम - नभोयान - चामरादि - विभूतयः । मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् ॥ अर्थात्-भगवन् ! आपके पास देवता, देवेन्द्र आदि आते हैं, आप आकाश में उड़ सकते हैं, या आपके चारों ओर चामर, छत्र, स्फटिक सिंहासन, प्रभामण्डल, अशोकवृक्ष, आदि भौतिक विभूतियाँ अठखेलियाँ कर रही हैं, इससे आप हमारे लिए महान् (वीतराग परमात्मा) या महनीय पूजनीय नहीं हैं, क्योंकि ये विभूतियाँ तो एक मायावी (जादूगर या ऐन्द्रजालिक) में भी विद्या के बल से या वैक्रिय शक्ति से पाई जा सकती हैं। १ अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिः दिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, अष्टौ महाप्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ २ आप्तमीमांसा, श्लोक-१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy