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१६४ | अप्पा सो परमप्पा
(३) निर्वेद, (४) अनु कम्पा और (५) आरथा । आत्मार्थी की पहचान इन्हीं पाँच लक्षणों से हो जाती है।
प्रथम लक्षण : पूर्वोक्त दोहे में सर्वप्रथम है-कषाय की उपशान्तता। कषायों का सर्वथा नाश तो बारहवें गुणस्थान के अन्त में होता है । परन्तु उसका प्रारम्भ तो आत्मार्थी के शम (प्रशम) अथवा समगुण से होता है। आत्मार्थी साधक चारित्र मोहनीय के उदय के कारण कषायों का सर्वथा नाश तो नहीं कर पाता, परन्तु कषाय-नाश की पूर्व झलक कषाय को उपशान्त करने से हो जाती है । आत्मार्थी साधक आत्महित को लक्ष्य में रख कर, आत्मा की प्रमाता शाति और समताप्राप्ति का विचार करता है। आत्मा से परमात्मा बनने के लिए अपनी शुद्ध आत्मा और परमात्मा के अकषायीस्वरूप पर दृश्रद्धा, अटूट विश्वास और अविचल प्रतीति करके तीव्रतर-तीव्र और मध्यम कषायो का त्याग करता है, केवल मन्द कषाय का सद्भाव रहता है, अथात्- वषायो को व. अत्यन्त मन्द, शान्त और कृश कर देता है।
ऐसे आत्मार्थी जीवों के कषाय उदय में न आएँ, ऐसा नहीं होता; किन्तु वे कषायों के उदय में आने पर सावधान हो जाते हैं, आये हुए कषायों के उदय में प्राय: हिलमिल नहीं जाता। कदाचित् असावधानीदश उदय में आए हए कषाय उसे अपनी ओर खींच भी लें तो भी आत्मार्थी में ऐसी सामर्थ्य होती है कि वह तुरन्त जागृत होकर उन्हें अपने अन्त:करण से बाहर निकालकर खदेड़ देता है। कदाचित उदय में आये हए कषायों में वह हिल-मिल भी जाए तो भी वह शीघ्र ही सावधान होकर विचारता है-कषाय मेरा स्वभाव नहीं है। मैं अकषायी निर्मल आत्मा हैं। क्रोधादिरूप में परिण मन होना वैभाविक है, वह परभाव में रमण करना है । परभाव के आश्रय से आस्रव आता है और उसके परिणामस्वरूप बन्ध-परम्परा की शृंखला जुड़ती जाती है । अतः क्रोध आदि कषायों के प्रसंग या निमित्त आने पर मुझे अपने आत्मस्वरूप में रहना है क्योंकि अन्तर में उदय पाते हुए क्रोधादि स्वरूप में नहीं हूँ। इस प्रकार आया हआ क्रोधादि का उदय समय (अवधि) के परिपाक के साथ समाप्त हो जायेगा और कर्मों की निर्जरा होकर वे झड़ जाएंगे।
यह आवश्यक नहीं है कि जितने कर्म उदय में बाएँ, उन सबका वेदन (अनुभव) करे ही, कभी-कभी सबका वेदन नहीं भी होता। परन्तु जो कर्म झड़ने के स्वभाव वाले है, वे झड़ ही जाते हैं। उनकी निर्जर'
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