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________________ परमात्मा बनने की योग्यता किसमें ? | १३५ एक वनस्पतिकाय को ही लीजिए । निगोद वनस्पति का एक ऐसा प्रकार है, जिसमें एक ही शरीर में अनन्त आत्माएँ रहती हैं । जिनका कोई विकास नहीं होता । चूंकि वहाँ उनका कोई चिन्तन नहीं, स्मृति नहीं, कल्पना नहीं, अपने सुख-दुःख को व्यक्त करने के लिए कोई भाषा नहीं; अभिव्यक्ति का कोई भी माध्यम नहीं है, उन आत्माओं के पास । इन्हें जैन तार्किक मनीषियों ने 'अव्यवहारराशि' की श्र ेणी में गिना है ! ये आत्माएँ बिलकुल अविकसित होती हैं । इनमें से कुछ आत्माएँ अवधि पूर्ण होने पर कर्म का शुभांश बढ़ने के कारण अथाह सागर के समान इस अव्यवहार राशि से निकलकर बूंद के समान व्यवहारराशि में आती हैं । यहाँ उनका चैतन्य विकास प्रारम्भ हो जाता है । निगोद से जब वे वनस्पतिकाय की अन्य जातियों में, तथा पृथ्वीकाय, अकाय, अग्निकाय एवं वायुकाय में आती हैं, इनमें केवल चेतना की एक किरण प्रस्फुटित होती है - स्पर्शज्ञान । इन एकेन्द्रिय जीवों में चेतना की एक किरण तो प्रकट हुई, लेकिन चेतना को प्रकट करने की शक्ति प्राप्त नहीं हो सकी । चिरकाल तक वहाँ रहने के पश्चात् पुण्य प्रबल होने पर उसे वाणी प्राप्त होती है । जगत् का सारा व्यवहार प्रायः वाणी से होता है । जब जीव ( आत्मा ) व्यवहारराशि में आता है, तब उसे स्पर्शेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय ये दो इन्द्रियाँ प्राप्त होती हैं । दो इन्द्रियों वाले जीवों को भाषा की उपलब्धि हुई, जिससे वे अपनी चेतना को अभिव्यक्त करने की स्थिति में आ गए । वे यह भी जानने लगे कि हमारा भी अस्तित्व है । रसनेन्द्रिय मिलने के साथ ही उन आत्माओं में चेतना की द्वितीय किरण प्रस्फुटित हुई । रसना से उन्हें स्वाद की अनुभूति और वाणी के प्रयोग की उपलब्धि हुई । वाणी से अपने अस्तित्व को प्रकट करने का अवसर भी मिला । चेतना के विकास का द्वार उनके लिए खुल गया । इसके पश्चात् किन्हीं शुभकर्मों के कारण वे आत्माएँ तीन इन्द्रियों वाले जीवों में आईं। यहाँ चेतना के विकास की तीन किरणें प्रस्फुटित हुईं। तीन इन्द्रियों वाले जीवों ने घ्राणेन्द्रिय प्राप्त कर ली, जिससे वे सूँघ - सूंघकर पदार्थों का अनुभव करने लगे । घ्राणेन्द्रिय के द्वारा पदार्थों की सुगन्ध दुर्गन्ध का पता लगने के साथ-साथ वे अपने लिए हितकर अहितकर, खाद्य अखाद्य का भी अनुभव करने लगे । बाह्यजगत् से अब उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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