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________________ आत्मानुभव : परमात्म-प्राप्ति का द्वार | ६६ परन्तु जो आत्मध्यानी या आत्मानुभवसम्पन्न होता है, वह आत्मा की परमज्योति का दर्शन पाकर तप्त हो जाता है, फिर उसके मन के किसी कोने में विषय-सुख की वांछा नहीं रहती।1 आत्मानुभूति की ऊषा या चन्द्रिका परमात्मभाव के लिए आवश्यक जिस प्रकार सूर्योदय से पूर्व रात्रि के सघन अन्धकार को चीरती हुई ऊषा प्रकट होती है, उसी प्रकार आत्मार्थी साधक के जीवन में परमात्मभाव के सूर्योदय से पूर्व कुति की रात्रि के अज्ञान एवं मिथ्यात्वरूपी सघन अन्धकार को दूर करती हुई आत्मानुभूति की ऊषा प्रकट होती है । इसके अतिरिक्त आत्मानुभूति का जब आगमन होता है तब आत्मार्थी को सम्यक्त्व के स्वच्छ प्रकाश में सकल कलाओं से परिपूर्ण अगम्य आत्मा के स्वरूप की, आत्मज्ञान की तथा आत्मा के शुद्ध स्वभाव की उज्ज्वल चन्द्रिका की दृढ़ प्रतीति हो जाती है, जिससे आत्मा के समस्त गुगों और शक्तियों की सम्पूर्ण कलाएँ जान-पहचान ली जाती हैं। इस कारण उसकी बहिरात्मदृष्टि पूर्णरूप से निराधार बनकर समाप्त हो जाती है और अन्तरात्मदृष्टि खिल उठती है, जो परमात्मभाव के चन्द्रोदय तक व्यक्ति को पहुँचा देती है । एक आत्मानुभवी के उद्गार इस प्रकार झंकृत हुए हैं ज्ञानतणी चांदरड़ी प्रगटी, तब गई कुमति की रयणी रे। अकल अनुभव उद्योत थयो, जब सकल कला पिछाणी रे ।। अनुभव : परमात्मा के प्रासाद का प्रहरी सिद्ध परमात्मा अथवा जीवन्मुक्त परमात्मा (अरिहन्तदेव) के. या अपने शुद्ध आत्म-स्वरूप का चिन्तन-मनन-ध्यान करते-करते किन्हीं धन्य क्षणों में मन शान्त हो जाता है और ध्याता ध्येय के साथ तदाकार होकर शद्ध आत्म-स्वरूप में तन्मय हो जाता है। यही आत्मानुभव की अवस्था है जो परमात्मा के प्रासाद का प्रहरी बनकर एक दिन परमात्मपद को प्राप्त करा देता है। १ आतुरैरपि जड़े रपि स्वक्ष्मत् सुत्यजा हि विषया न तु रागः । ध्यानवांस्तु परमद्युतिदर्शी तृप्तिमा य न त मृच्छति भूयः । -अध्यात्मसार ध्यान. श्लो. २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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