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अपने को जानना : परमात्मा को जानना है | ८७
एक वद्ध जौहरी था। रत्नों को परीक्षा करने में अत्यन्त निपूण ! उस नगर के राजा ने उसकी प्रशंसा सुनकर अपने एक कीमती हीर को परखने के लिए उसे बुलाया । राजा उसकी रत्नपरीक्षण कला से अतीव प्रसन्न हआ। राजा ने उसे पारितोषिक देने का आदेश अपने दीवान को दिया।
दीवान आत्मार्थी और मिष्ठ था । उसने उस जौहरी को बुलाकर पूछा-भाई ! आप रत्नों को परखना तो जानते हैं, किन्तु इस जिन्दगी में कभी सच्चिदानन्दस्वरूप चैतन्य रत्नरूपी आत्मा को जाना-परखा या नहीं ? जौहरी को आत्मा के विषय में न तो दिलचस्पी थी, न हो उसने उसे जानने-परखने का प्रयत्न ही किया था। अतः उसने इस बात से इन्कार कर दिया।
राजा के द्वारा जौहरी को इनाम देने के बारे में पूछे जाने पर दीवान ने कहा--"महाराज! इस जौहरी के सात जूते मारे जायं, यह इनाम इसे दीजिए।" राजा सुनकर आश्चर्य में पड़ गया। ८० वर्ष का वृद्ध एवं रत्न-परीक्षा में निपुण जौहरी, उसे रुपयों के बदले सात जूते मारने का इनाम ! राजा की इस जिज्ञासा का समाधान दीवान ने किया कि महाराज ! यह जौहरी ८० वर्ष का हो गया। परिवार में इसके पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र हो गये । इसकी जिन्दगी का किनारा आने लगा है, फिर भी यह सद्धर्म को व आत्मा को जानने-समझने का कुछ विचार नहीं करता । सारी आयू इसने पाषाण-रत्नों को परखने में बिता दो, परन्तु आत्मारूपो चिन्तामणि रत्न को परखने का कभी विचार नहीं किया । इसलिए इसके लिए मैंने सात जूते मारने का इनाम सोचा है।"
जौहरी को आत्मा सुपात्र थी। उसके हृदय में यह बात लग गई। उसने अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा से कहा-“राजन् ! मुझे रुपयों का इनाम नहीं चाहिए, दीवानजी ने जो आत्मारूपी रत्न को जानने-परखने हितोपदेश दिया है, वही मेरे लिए बहुत बड़ा इनाम है।"
हाँ, तो संसार के बाह्य मोहक रत्नों या लुभावने आकर्षणों एवं पदार्थों के चक्कर में मनष्य को नहीं फंसना चाहिए, परन्तु इस बात को न समझ कर जो आत्मरत्न को यों ही खो देता है, उसे सब बाह्य पदार्थ यहीं छोड़कर जाना पड़ता है, परलोक में नरकादि गतियों में जन्म-जरामृत्यु-व्याधि, पीड़ा आदि भयंकर दुःखों के जूते खाने पड़ते हैं।
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