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________________ अपने को जानना : परमात्मा को जानना है | ८५ को खाने-पीने-चखने का तो कहीं कोमल गुदगुदे मोहक पदार्थों को स्पर्श करने का आकर्षण हो जाता है और उनकी आसक्ति और लालसा में मुग्ध मनुष्य इतना खो जाता है कि वह अपने आप को ही भूल जाता है। उन बाह्य आकर्षणों में फंसकर वह उनको प्राप्त करने और उनका उपभोगपरिभोग करने में इतना रच-पच जाता है कि उसे भान नहीं रहता कि "मैं कौन हैं ? कैसा हैं ? कहाँ हैं ? मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ? रागादि करने का स्वभाव मेरा नहीं है।' इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा गया है एवमेगेसि णो णातं भवति–अत्थि मे आया ओववाइए, णस्थि मे आया ओववाइए, के अहं आसी? के वा इओ चुओ इहपेच्चा भविस्सामि ?1 "कितने ही जीवों को यह ज्ञान नहीं होता, मेरी आत्मा (औपपातिक) पुनः जन्म-प्राप्त है या नहीं है ? मैं पूर्वजन्म में कौन था ? अथवा यहाँ से मर, दूसरे लोक में क्या बनूगा ?" तात्पर्य यह है कि अधिकांश जीवों को यह ज्ञान-भान ही नहीं होता कि पूर्वभव में हम कौन थे ? वहाँ क्या-क्या कर्म किये थे, जिसके परिणामस्वरूप इस जन्म में आए ? उनको यह भान-ज्ञान कहाँ से हो ? क्योंकि उनउन जन्मों में भी आत्मा को नहीं जाना था, आत्मा के स्वरूप, स्वभाव और सद्गुणों को नहीं समझा था, इसी कारण उन जीवों ने विगाव-दशा बढ़ाकर अपने संसार में वृद्धि की, स्वभाव-दशा का सेवन कर संसार परिमित (सीमित) नहीं किया। यह कहाँ से होता ? उन-उन जन्मों में भी पांचों इन्द्रियों के विषयों की ओर तथा मन के विकारों (विभावों) की ओर दौड़ के कारण उनके मन, बुद्धि, चित्त, इन्द्रियाँ आदि उन्हीं मोहक, आपातरमणीय, क्षुद्र आकर्षणों में रची-पची रहीं। आत्मा को यह ज्ञानभान ही नहीं रहा कि विषयों में मिलने वाले क्षणिक और दुःखबीज पराधीन सुख की अपेक्षा आत्माधीन, स्थायी और अव्याबाध सुख, मेरी आत्मा में मौजूद है, ज्ञान, आनन्द और आत्मशक्ति का खजाना मेरे अन्तर् में ही पड़ा है, ऐसा दृढ़ विचार, दृढ़ श्रद्धान या दृढ़ निश्चय आता कहाँ से ? और इस जन्म में बहुमूल्य मनुष्यभव प्राप्त कर लेने के बावजूद भी उन्हीं पूर्वोक्त बाह्य आकर्षणों में फंसा रहा, अच्छे से अच्छे अवसर प्राप्त हुए, धर्मश्रवण के, सत्संग के एवं आत्मा के विषय में चिन्तन-मनन के तथा बुद्धि से आत्मस्वरूप के विषय में एवं मैं कौन हूँ ? इस विषय में निश्चय करने के १ आचारांग सूत्र श्रु.१ अ. १ सू. २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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