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१४२ | सोना और सुगन्ध
"महाराज ! पहला चोर जिससे आपने यह कहा था'तुमने चोरी की ? बुरी बात है।' वह चोर उसी रात जहर पीकर मर गया । राजन् ! दूसरे चोर से आपने कहा था - 'चोरी करते शर्म नहीं आई ? दूसरों का माल हड़पते तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती ? रात का चोर दिन में साहूकार और शरीफ बनकर रहे, यह मनुष्य जीवन की कैसी विडम्बना है ?' महाराज ! वह दूसरा चोर नगर छोड़कर भाग गया । पता लगाकर मैं उसके पास पहुँचा तो देखा, वह चोरी छोड़कर मेहनत-मजदूरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहा है । जिस चोर को आपने पचास कोड़ों की सजा दी थी, वह रह तो इसी नगर में रहा है, पर उसने चोरी करना छोड़ दिया है । वह भी मेहनत मजदूरी करके अपना व अपने परिवार का पेट पालता है । महाराज ! चौथा चोर जो सौ कोड़े और छह महीने का कारावास भोगकर निकला है, अब भी चोरी करता है ।"
मन्त्री की बात समाप्त होने पर राजा ने मुस्कान के साथ कहा
"मन्त्री ! अब तो तुम्हें मेरे अद्भुत न्याय का रहस्य मालूम हो गया ? पहले चोर की आत्मा इतने से ही तड़प उठी कि मैंने उसे चोर कहा । वह 'बुरी बात है' से ही इतना शर्मिन्दा हुआ कि दुनिया को अपना मुँह नहीं
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