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________________ २ सोना और सुगन्ध भावदेव ने कहा-मुनिप्रवर ! आपके त्याग-वैराग्य से छलछलाते हुए प्रवचन को सुनकर मेरे मन में वैराग्य की भावना तरंगित होती है किन्तु जब पत्नी की ओर देखता हूँ तो मुझे अपने कर्तव्य का ध्यान आता है, यदि मैं इस समय साधु बना तो अपने कर्तव्य से च्युत हो जाऊँगा। पति की बात को वीच में ही काटते हुए नागला ने कहा-यदि आपको साधु बनना है, तो सहर्ष बन सकते हैं । मैं आपके मार्ग में अवरोधक नहीं बनूंगी। मैं साध्वी नहीं हो सकती, क्योंकि मेरे में इतना सामर्थ्य नहीं है। मैं सासु की सेवा में रहकर आनन्द से धर्म-ध्यान करूंगी। मेरा भी आपसे यही नम्र निवेदन है कि आप संसार में न फंसे । देखिए, आपके भाई साधु हैं, जो दुष्कर साधना से आत्मा को निखार रहे हैं। आप भी इन्हीं के मार्ग का अनुसरण कर अपने जीवन को चमका सकते हैं। भाई का हृदयग्राही उपदेश, और पत्नी की प्रबल प्रेरणा से भावदेव भवदेव मुनि के पास साधु बन गये। और नागला धर्म-परायणा सासु की सेवा में रहकर धर्मध्यान करने लगी। वर्ष पर वर्ष बीतते चले गये, दोनों भाई स्वाध्याय, ध्यान, जप-तप में दत्तचित्त हो गए। जन-जन के मन में त्याग-वैराग्य की निर्मल भावना प्रतिबुद्ध करते हुए एक ग्राम से दूसरे ग्राम में विचरते रहे। भवदेव मुनि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003182
Book TitleSona aur Sugandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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