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विषापहार स्तोत्र ] शिक्षित कहलाने वाले भी राग-द्वेष युत वेषों में। करते हैं देवत्व बुद्धि को जो सकषाय कुदेवों में ॥ बुझे हुए दीप को कहते ज्यों नन्दित स्थिति के ज्ञाता । नर-कपाल को कहे मांगलिक वस्तु तत्त्व के अज्ञाता ॥२८॥
नानार्थक भी एकार्थक भी वाणी के वक्ता हो आप। जिसको सुन निर्दोष बतावे और मिटावें सब सन्ताप । सुनने से ही दोष रहितता उसकी प्रकटित हो जाती। जैसे ज्वर से मुक्त अवस्था स्वर से ही जानी जाती ॥२९॥
दिव्य ध्वनि के खिरने में नहिं इच्छा का कुछ भी संयोग। भव्य जीव हित नियत काल पर तदपि प्रकट हो यही नियोग। नहीं बढ़ाना कभी चाहता शशी समुद्रों का पानी। तो भी उगता शशी, अंबुधि बढ़ते बात यही जानी ॥३०॥
प्रभो! आपके गुण परमोज्ज्वल परम प्रसन्न परम गंभीर। बहुत तरह के अरु अनन्त हैं हरते हैं सब जग की पीर ।। वे अनन्त हैं तो भी स्तुति से थक जाने पर भासे सान्त। इससे अधिक और क्या महिमा, उनका नहीं कभी भी अन्त ॥३१॥
केवल स्तुति से फल न सिद्ध हो भक्ति भाव भी आवश्यक। भक्ति भाव के साथ स्मरण भी हो फिर नुति हो तब दुख अन्त॥ इसीलिए स्तुति स्मरण भक्ति नुति करता हूँ मैं सभी उपाय। किसी यत्न से कार्य सिद्ध हो, जन्म मरण मेरा मिट जाए ॥३२॥
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