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विषापहार स्तोत्र ]
[ ३५ चाहें अविवेकी सुख जग में, काम दुःख का करते हैं। गुण चाहें पर करें दोष वे, चहें धर्म अघ भरते हैं। चहें तेल मिट्टी को पेलैं साधन जब विपरीत करें। कैसे हो फल सिद्धि उन्हें फिर जो न तुमारा पग पकरें ॥१३॥
विषहारक मणि नाथ तुम्ही हो तुम ही हो परमौषधि रूप। तुम ही मन्त्र, रसायन भी तुम, तुम ही यन्त्र तन्त्र गुण भूप॥ तुम्हें छोड़कर इन्हें ढूँढते फिरें वृथा गोते खाते। नाम तुम्हारे मणि मन्त्रादिक अविवेकी न समझ पाते ॥१४॥
नहीं आपके मोह किसी से नहीं किसी में चित्त दिया। किन्तु आपको जो चित धारै उसने सब कुछ प्राप्त किया। करामलकवत् वह सब जाने, तेरी महिमा अगम अपार । बाहर मन से भी जो ध्यावै वह भी पावे जग सुख सार ॥१५॥
तुम त्रिकाल तत्त्वों के ज्ञाता तीनलोक के हो स्वामी। संख्या इनकी जितनी भी है उनके ही अन्तर्यामी॥ नहीं ज्ञान प्रभुता की सीमा मर्यादित हैं लोक पदार्थ। आप अनन्त चतुष्टय धारी बात यही है पूर्ण यथार्थ ॥१६॥
इन्द्रादिक जो सेवा करते प्रभो ! आपका क्या उपकार । आप अगम्य रूप हो स्वामिन् ! यह तो उनका भक्ति प्रकार॥ रवि पर कोई छत्र करै तो उसमें रवि पर क्या अहसान। स्वयं धूप से वह बचता है रवि का भी होता सम्मान ॥१७॥
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