________________
कुन्दकुन्द शतक ]
[ ३८३
जिन-आगमों से सिद्ध हों सब अर्थ गुण-पर्यय सहित । जिन-आगमों से ही श्रमणजन जानकर साधें स्वहित ॥ ६५ ॥ स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं।
भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है ॥ ६६ ॥ जो श्रमण आगमहीन हैं वे स्व-पर को नहिं जानते । वे कर्मक्षय कैसे करें जो स्व-पर को नहिं जानते ॥ ६७ ॥ व्रत सहित पूजा आदि सब जिनधर्म में सत्कर्म हैं। दृगमोह - क्षोभ विहीन निज परिणाम आतमधर्म है ॥ ६८ ॥ चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभव है । दृगमोह-क्षोभ विहीन निज परिणाम समाताभाव है ॥ ६९ ॥ प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा । पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा ॥७०॥ शुद्धोपयोगी श्रमण हैं शुभोपयोगी भी श्रमण। शुद्धोपयोगी निरास्रव हैं आस्रवी हैं शेष सब ॥७१॥ काँच-कञ्चन बन्धु-अरि सुख-दुःख प्रशंसा - निन्द में । शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में ॥ ७२ ॥ भावलिङ्गी सुखी होते द्रव्यलिङ्गी दुःख लहें । गुण-दोष को पहिचान कर सब भाव से मुनिपद गहें ॥ ७३ ॥ मिथ्यात्व का परित्याग कर हो नग्न पहले भाव से । आज्ञा यही जिनदेव की फिर नग्न होवे द्रव्य से ॥७४॥ जिनभावना से रहित मुनि भव में भ्रमें चिरकाल तक । हों नगन पर हों बोधि-विरहित दुःख लहें चिरकाल तक ॥७५ ॥ वस्त्रादि सब परित्याग कोड़ाकोड़ि वर्षों तप करें। पर भाव बिन ना सिद्धि हो सत्यार्थ यह जिनवर कहें ॥ ७६ ॥ नारकी तिर्यञ्च आदिक देह से सब नग्न हैं । सच्चे श्रमण तो हैं वही जो भाव से भी नग्न हैं ॥ ७७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org