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भक्तामर स्तोत्र ]
[ २७ कंठ कोकिला-सा अति काला, क्रोधित हो फण किया विशाल। लाल-लाल लोचन करके यदि, झपटे नाग महा विकराल । नाम रूप तब अहि दमिनी का, लिया जिन्होंने ही आश्रय। पग रखकर नि:शङ्क नाग पर, गमन करें वे नर निर्भय ।।४१ ॥
जहाँ अश्व की और गजों की, चीत्कार सुन पड़ती घोर। शूरवीर नृप की सेनाएँ, रव करती हों चारों ओर ।। वहाँ अकेला शक्तिहीन नर, जप कर सुन्दर तेरा नाम । सूर्य-तिमिर सम शूर-सैन्य का, कर देता है काम तमाम॥४२॥
रण में भालों से बेधित गज, तन से बहता रक्त अपार। वीर लड़ाकू जहँ आतुर हैं, रुधिर नदी करने को पार ॥ भक्त तुम्हारा हो निराश तहँ, लख अरिसेना दुर्जय रूप। तव पादारविन्द पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप ॥४३ ॥
वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छ मगर एवं घड़ियाल। तूफा लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल । भ्रमर-चक्र में फँसा हुआ हो, बीचों बीच अगर जल-यान। छुटकारा पा जाते दुख से, करने वाले तेरा ध्यान ॥४४॥
असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार। जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार ॥ ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन। स्वास्थ्यलाभ कर बनता उसका, कामदेव-सा सुन्दर तन॥ ४५ ॥
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