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भक्तामर स्तोत्र ]
[ २५ जगमगात नख जिसमें शोभे, जैसे नभ में चन्द्रकिरण। विकसित नूतन सरसीरुहसम, हे प्रभु तेरे विमल चरण। रखते जहाँ वहाँ रचते हैं, स्वर्ण कमल सुर दिव्य ललाम। अभिनन्दन के योग्य चरण तव, भक्ति रहे उनमें अभिराम ॥३६ ।।
धर्म-देशना के विधान में, था जिनवर का जो ऐश्वर्य। वैसा क्या कुछ अन्य कुदेवों, में भी दिखता है सौंदर्य। जो छवि घोरतिमिर के नाशक, रवि में है देखी जाती। वैसी ही क्या अतुल कान्ति, नक्षत्रों में लेखी जाती ॥३७॥
लोल कपोलों से झरती है, जहाँ निरन्तर मद की धार। होकर अति मदमत्त कि जिस पर, करते हैं भौरे [जार ।। क्रोधासक्त हुआ यों हाथी, उद्धत ऐरावत सा काल। देख भक्त छुटकारा पाते, पाकर तव आश्रय तत्काल ॥३८॥
क्षत-विक्षत कर दिए गजों के, जिसने उन्नत गण्डस्थल। कान्तिमान गज-मुक्ताओं से, पाट दिया हो अवनी-तल॥ जिन भक्तों को तेरे चरणों, के गिरि की हो उन्नत ओट। ऐसा सिंह छलांगे भरकर, क्या उस पर कर सकता चोट ॥३९॥
प्रलय काल की पवन उड़ाकर, जिसे बढ़ा देती सब ओर। फिकें फुलिंगे ऊपर तिरछे, अङ्गारों का भी हो जोर ॥ भुवनत्रय को निगला चाहे, आती हुई अग्नि भभकार। प्रभु के नाम मन्त्र जल से वह, बुझ जाती है उस ही बार ॥४०॥ .
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