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________________ विंशति तीर्थङ्कर स्तवन ] [२४३ विदेहक्षेत्र-स्थित-विंशति-तीर्थङ्कर-स्तवन स्वचतुष्टय की सीमा में, सीमित हैं सीमन्धर भगवान। किन्तु असीमित ज्ञानानन्द से सदा सुशोभित हैं गुणखान ॥१॥ युगल धर्ममय वस्तु बताते नय प्रमाण भी उभय कहे। युगमन्धर के चरण-युगल में, दर्श-ज्ञान मम सदा रमे ॥२॥ दर्शन-ज्ञान बाहुबल धरकर, महाबली हैं बाहु जिनेन्द्र। मोह शत्रु को किया पराजित शीष झुकाते हैं शत इन्द्र ॥३॥ जो सामान्य-विशेष रूप उपयोग सुबाहु सदा धरते। श्री सुबाहु के चरण कमल में भविजन नित वन्दन करते ॥४॥ शुद्ध स्वच्छ चेतनता ही है जिनकी सम्यक् जाति महान। अन्तर्मुख परिणति में लखते वन्दन संजातक भगवान ।।५।। निज स्वभाव से स्वयं प्रगट होती है जिनकी प्रभा महान। लोकालोक प्रकाशित होता धन्य स्वयंप्रभ प्रभु का ज्ञान ॥६॥ चेतनरूप वृषभमय आनन से जिनकी होती पहिचान। वृषभानन प्रभु के चरणों में नमकर परिणति बने महान ७ ॥ वीर्य अनन्त प्रगट कर प्रभुवर भोगें निज आनन्द महान। ज्ञान लखें ज्ञेयाकारों में धन्य अनन्तवीर्य भगवान ॥८॥ सूर्यप्रभा भी फीकी पड़ती ऐसी चेतन प्रभा महान। धारण कर जिनराज सूर्यप्रभ देते जग को सम्यग्ज्ञान ॥९॥ अहो विशाल कीर्ति धारण कर शत इन्द्रों से वन्दित हैं। श्री विशालकीर्ति जिनवर नित, त्रिभुवन से अभिनन्दित हैं॥१०॥ स्वानुभूतिमय वज्रधार कर, मोह शत्रु पर किया प्रहार। वन्दन वज्रधार जिनवर को, भोगें नित आनन्द अपार ॥११॥ चारु-चन्द्र सम आनन जिनका, हरण करे जग का आताप! चन्द्रानन जिन चरण-कमल में प्रक्षालित हों सारे पाप ॥१२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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