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चेतो-चेतो आराधना में ]
[२३७ ईर्ष्या त्यागो जलती हुई, अग्नि है कह रही। मत चाह दाह में जलो, सुख अन्तर में सही॥ वायु कहे भ्रमना वृथा, होओ निज में निश्चल। देखो-देखो यह जीव की, विराधना का फल ॥२॥ जड़ता छोड़ो प्रमाद को नाशो कहें तरुवर । शुद्धातमा ही सार है, उपदेश दें गुरुवर ॥ समझो-समझो निजात्मा, अवसर बीते पल-पल॥ देखो-देखो यह जीव की, विराधना का फल ॥३॥ मायाचारी संक्लेशता का, फल कहें तिर्यंच। जागो अब मोह नींद से, छोड़ो झूठे प्रपञ्च ॥ जिनधर्म पाया भाग्य से, दृष्टि करो निर्मल॥ देखो-देखो यह जीव की, विराधना का फल ॥४॥ शृंगार अरु भोगों की रुचि का, फल कहती नारी। कंजूसी पूर्वक संचय का, फल कहते भिखारी॥ बहु आरम्भ परिग्रह फल में, नारकी व्याकुल। देखो-देखो यह जीव की, विराधना का फल ॥५॥ असहाय शक्ति हीन, देखो दरिद्री रोगी। कोई अनिष्ट संयोगी, कोइ इष्ट वियोगी॥ घिनावना तन रूप, अंगोपांग है शिथिल। देखो-देखो यह जीव की, विराधना का फल ॥६॥ यदि ये दुःख इष्ट नहीं हैं, तो निज भाव सुधारो। निवृत्त हो विषय कषायों से, निजतत्त्व विचारो॥ चक्री के वैभव भोग भी, सुख देने में असफल। देखो-देखो यह जीव की, विराधना का फल ॥७॥ पाकर किञ्चित् अनुकूलताएँ, व्यर्थ मत फूलो। हैं पराधीन आकुलतामय, नहीं मोह में भूलो॥
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