SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावना द्वात्रिंशतिका] [१४३ भावानुवाद (भावना बत्तीसी) प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणी जनों में हर्ष प्रभो। करुणा-स्रोत बहे दुखियों पर, दुर्जन में मध्यस्थ विभो ॥१॥ यह अनन्त बल-शील आतमा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से. वह अनन्त बल दो मुझको ॥२॥ सुख-दुख बैरी बन्धु वर्ग में, कांच कनक में समता हो। वन-उपवन प्रासाद कुटी में, नहीं खेद नहिं ममता हो ॥३॥ जिस सुन्दरतम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु ! मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ ॥४॥ एकेन्द्रिय आदिक प्राणी की, यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह, निष्फल हो दुष्कृत्य प्रभो ॥५॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन, जो कुछ किया कषायों से। विपथ-गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से ॥६॥ चतुर वैद्य विष विपक्ष करता, त्यों प्रभु ! मैं भी आदि उपांत। अपनी निन्दा आलोचन से, करता हूँ पापों को शान्त ॥७॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी, मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत-प्रवर्तन करके , शीलाचरण विलीन किया ॥८॥ कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया। पी पीकर विषयों की मदिरा, मुझ में पागलपन आया॥९॥ मैंने छली और मायावी, हो असत्य-आचरण किया। पर-निन्दा गाली चुगली जो, मुंह पर आया वमन किया ॥१०॥ निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे। निर्मल जल की सरिता सदृश, उर में निर्मल ज्ञान बहे ॥११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy