SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वरूपसंबोधन स्तोत्र] [१४१ हेय (त्यागने योग्य) व उपादेय (ग्रहण करने योग्य) तत्त्व का स्वरूप जानकर पररूप जो हेयतत्त्व, उससे निरालंबी होकर उपादेयस्वरूप का आलंबन करना चाहिए ॥१९॥ __ अपनी आत्मा के व पर पदार्थों के असली स्वरूप का बार-बार चिन्त्वन करना चाहिए और समस्त संसारी पदार्थों की इच्छा का त्याग करके उपेक्षा भावना (राग-द्वेष के त्याग की भावना) को बढ़ाते-बढ़ाते मोक्षपद प्राप्त करना चाहिए ॥२०॥ जब किसी साधु महात्मा पुरुष के ह्रदय से मोक्ष की भी इच्छा निकल जाती है तभी उसको मुक्ति कहते हैं । इस सिद्धान्त वाक्य के ऊपर ध्यान देते हुए आत्महित के इच्छुक जीवों को सभी पदार्थों की इच्छा का त्याग करना चाहिए ॥२१॥ यदि कोई यह कहे कि इच्छा करना तो अपने अधीन होने से सुलभ है, किन्तु फल प्राप्ति अपने अधीन न होने से कठिन है, इसलिए इच्छा किसी भी वस्तु की जा सकती है । ऐसा कहने वाले को आचार्य करुणापूर्वक कहते हैं कि हे भाई ! जैसे इच्छा करना आत्माधीन होने से सुलभ है, वैसे ही परमानन्दमय सुख का पाना भी तो आत्मा के ही आधीन है । इसलिए तुम उसकी प्राप्ति का प्रयत्न ही क्यों नहीं करते, जिससे कि संसार के झगड़ों से छूटकर हमेशा के लिए निराकुलित हो जाओ ॥२२॥ आचार्य कहते हैं कि मुक्ति प्राप्त करना भी अपने ही आधीन समझ कर स्व और पर को जानना चाहिए तथा बाह्य पदार्थों के मोह को नष्ट करना चाहिए और आकुलतारहित स्वानुभवगम्य केवल अपने निजस्वरूप में ही स्थिर होना चाहिए॥२३॥ इस श्लोक में आचार्य आत्मा में ही सातों कारक सिद्ध करते हुये कहते हैं कि व्यवहारी जीवों को अपनी ही आत्मा में उत्पन्न हुए परमानन्दमय अविनश्वर पद को प्राप्त करना चाहिए ॥२४॥ श्री अकलङ्क भट्टाचार्य उपसंहार करते हुए ग्रन्थ का माहात्म्य वर्णन करते हैं कि जो पुरुष पच्चीस श्लोकों में कहे इस स्वरूप सम्बोधन ग्रन्थ को आदर से पढ़ेंगे, सुनेंगे और इसके वाक्यों द्वारा कहे हुए आत्मतत्व का बारम्बार मनन करेंगे उनको यह ग्रन्थ परमार्थ की सम्पत्ति अर्थात् मोक्षपद प्राप्त करेगा ॥२५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003172
Book TitleBruhad Adhyatmik Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Devlali
PublisherKundkundswami Swadhyaya Mandir Trust Bhind
Publication Year2008
Total Pages418
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy