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________________ वैराग्य पाठ संग्रह जिन चैत्य-चैत्यालय अकृत्रिम - कृत्रिम भी अति भा रहे । अशरण जगत में शरण सुखमय ये ही प्रभु दर्शा रहे ॥७॥ जग में न कोई दूसरी जिनवाणी माँ व्यवहार है। इस दुःषम भीषण काल में जिनवाणी ही आधार है ॥८॥ जिनधर्म ही सत्यार्थ भासे सहज वस्तु स्वभाव है। जो है अहिंसा रूप जिसमें नहिं विराधक भाव है ॥ ९ ॥ है मूल सम्यक्दर्श जिसका ज्ञानमय जो धर्म है। अवकाश नहिं है रूढ़ियों का साम्य जिसका मर्म है ॥ १० ॥ लक्षण कहे दश धर्म के सब ही को मंगलरूप है। व्याधि-उपाधि नहीं जिनमें सहज आत्मस्वरूप है ॥ ११ ॥ इस धर्म की ही हो सदा जगमाँहिं परम प्रभावना । स्वप्न में भी हो नहीं किंचित् कभी दुर्भावना ॥ १२ ॥ मैत्री रहे सब प्राणियों से गुणीजनों में मोद हो । दीन-दु:खियों पर दया, विपरीत पर नहीं क्षोभ हो ॥ १३ ॥ संवेग अरु वैराग्य वृद्धिंगत सदा होते रहें । उर-भूमि में नित धर्म के ही बीज शुभ बोते रहे ||१४|| हो धर्मपर्वों प्रति सहज उत्साह अन्तर में सदा । समभाव मंगलमय रहे कुछ पाप नहीं लागे कदा ॥ १५ ॥ मूर्छा न हो परभाव में एकान्त का सेवन करूँ । नित तीर्थक्षेत्रों में अहो आनन्द का वेदन करूँ ॥ १६ ॥ निरपेक्ष हो स्वाधीन हो मम वृत्ति हो चिद् ब्रह्ममय । हो ब्रह्मचर्य परमार्थ पूर्ण स्वपद लहूँ अक्षय अभय ॥१७॥ आत्मा को जाने बिना दुख मिटता नहीं और आत्मा को जानने पर दुख रहता नहीं । Jain Education International 89 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003171
Book TitleVairagya Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
PublisherKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publication Year2010
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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