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वैराग्य पाठ संग्रह
अपना वैभव लखा अपार, पर पदार्थ लख जगे न प्यार । सहज अचौर्य महाव्रत होय, वंदनीय है मुनिपद सोय ।।७।। ध्यावें सदा शुद्ध चिद्रूप, परम ब्रह्म परमात्म स्वरूप। ब्रह्मचर्य वर्ते अविकार, लगें नहीं किंचित् अतिचार ।।८।। अपनी निधि अपने में धार, भये अकिंचन मुनि सुखकार। तिल तुष मात्र परिग्रह नाहिं, तुष्ट रहें निज आतम माँहि ।।९।। नहिं आकुलता नहीं प्रमाद, नहिं अनुबन्ध रूप अवसाद। सहज गमन लागे नहीं दोष, ईर्या समिति पले निर्दोष ॥१०॥ प्राणि मात्र प्रति मैत्री भाव, हित-मित-प्रिय वच हो सुखदाय। भाषा समिति सहज ही होय, तारण-तरण ऋषीश्वर सोय ।।११।। अनाहारी शुद्धातम ध्यावें, स्वयं स्वयं में तृप्त रहावें। दोष छियालिस लगे न कोय, धनि युक्ताहारी मुनि सोय ॥१२॥ त्योगोपादानशून्य स्वभाव, भिन्न सभी भासे परभाव। तहँ किंचित् ममत्व नहीं जान, हो सयत्न निक्षेप आदान ॥१३।। जानत सब जीवन की जात, होवे नाहीं उनका घात। प्रासुक भूमि माँहिं मल डारे, निर्मल आत्म स्वरूप संभारें ॥१४।। नाना इन्द्रिय विषय निहार, हर्ष-विषाद न जिन्हें लगार। परम जितेन्द्रिय श्री मुनिराय, सहज नमन होवे सुखदाय।।१५।। चेतनपद परस्यो अविकार, उपज्यो आनन्द अपरम्पार। जड़ स्पर्श में राग या द्वेष, होवे नहीं सहज लवलेश॥१६।। स्वाद निजानन्द रस को पाय, बाह्य स्वाद फीके दिखलाय। नीरस तो नीरस ही रहे, सरस स्वाद भी नीरस भये ॥१७॥ अहा अगंध स्वरूप अनूप, परमानन्दमय शुद्ध चिद्रूप। नहीं सुगन्ध लगे सुखरूप, भासे नहिं दुर्गन्ध दुःखरूप॥१८॥
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