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वैराग्य पाठ संग्रह तज एकान्त-पक्ष दुःखमय पक्षातिक्रान्त पावें, फैले धर्म अहिंसा जग में आनन्द विलसावें॥१५॥ मंगलदायक श्री जिन-प्रवचन नित जग में गूंजें, तत्त्वभावना के प्रसाद से सर्व पाप धूजें। समयसार ही जिन-प्रवचन का सार सहज पाया, ज्ञायक की ज्ञायकता लख परमानन्द विलसाया॥१६॥ यथायोग्य हों षट्-आवश्यक पापों का हारक, किन्तु अवश का कर्म ज्ञानमय निश्चय आवश्यक। निर्विकल्प आनन्दरूप मैं उपादेय जाना, रागादिक से भिन्न अहो मेरा चेतन वाना।।१७।। नित प्रभावना योग्य आत्मा भाऊँ अन्तर में, ज्ञान, दान, व्रत, संयम, पूजा से हो बाहर में। जैनधर्म की नित प्रभावना दिन दूनी स्वामी, लहें भव्य सन्मार्ग अहो मंगलमय अभिरामी ॥१८॥ शुद्धातम ही तीर्थ है शाश्वत सब जग पहिचानें, आत्मज्ञान प्रगटाकर सब ही मोह-तिमिर हानें। सम्यग्चारित्र धारण करके अक्षय सुख पावें, कर्म नशावें शिवपद पावें नहीं भव भरमावें॥१९॥ ये ही भावना सोलह कारण ज्ञानी को होवें, वे बिन चाहे तीर्थंकर हो जग के दुःख खोवें। धर्मतीर्थ प्रगटावें जिसमें भवि स्नान करें, आप तरें औरन को तारें शिव साम्राज्य लहें॥२०॥ धन्य हुआ जिनशासन पाया आत्मरुचि लागी, परभावों से भिन्न स्वाभावकि निज महिमा जागी। स्वर्णिम अवसर मिला व्यर्थ नहीं पर में भरमाऊँ, तोड़ सकल जगद्वन्द्व-फंद निज शुद्धातम ध्याऊँ॥२१॥
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