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भेदज्ञान हो मद नहीं उपजे महाक्लेश कारी, दैन्य और अभिमान रहित हो जीवन हितकारी ॥ ३ ॥ तीन मूढ़ता षट् अनायतन नहिं आयें मन में, प्रभु निर्मूढ़ प्रवृत्ति होवे, चिदानन्द घन में । नहीं वृत्ति हो लोकनिंद्य या धर्मनिंद्य प्रभुवर, धर्मप्रभावक मंगलदायक हो वृत्ति जिनवर ॥४॥ विनयवंत भगवंत कहावें, नहीं पर माँहिं झुकें, वे ही हैं आदर्श जगत में सब दुख द्वन्द्व मिटें । अविनय नहीं हो पाय किसी की, विनय योग्य होवे, आत्मविनतता रूप विनय निश्चय सब दुख खोवे ॥५॥ दृष्टा - ज्ञाता रहूँ शील अंतर में प्रगटावे, भोगूँ निजानन्दरस अविरल नहिं विकल्प आवे । अपनी मर्यादा में रहकर ध्रुव प्रभुता पाऊँ, ब्रह्मचर्य की होय पूर्णता निजपद प्रगटाऊँ ॥६॥ भेदज्ञान की रहे भावना तब तक हे स्वामी, ज्ञान- ज्ञान में होय प्रतिष्ठित शाश्वत सुखदानी । हो अविछिन्न ज्ञानानुभूति दुर्वार मोह नाशे, शुद्ध चेतना का प्रकाश स्वाभाविक परकाशे ॥७॥ रहा नहीं उत्साह शेष किंचित् पर-भावन में, हौंस जगी है एक मात्र निज शिवपद साधन में। सब संसार असार दुःखमय दुःखों का कारण, धन्य घड़ी आतम आराधूं, कर मुनिपद धारण ॥ ८ ॥ अपनी शक्ति अपने में ही सहज प्रत्यक्ष दिखी, वैभाविक परिणति अति दुःखमय सहजपने छूटी ।
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