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वैराग्य पाठ संग्रह जनमत मरत तुझ एकले को काल केता हो गया। संग और नाहीं लगे तेरे सीख मेरी सुन भया।॥४॥ इन्द्रीन तैं जाना न जावै तू चिदानन्द अलक्ष है। स्वसंवेदन करत अनुभव होत तब प्रत्यक्ष है। तन अन्य जड़ जानो सरूपी तू अरूपी सत्य है। कर भेदज्ञान सो ध्यान धर निज और बात असत्य है।।५।। क्या देख राचा फिरै नाचा रूप सुन्दर तन लहा। मल मूत्र भाण्डा भरा गाढ़ा तू न जानै भ्रम गहा। क्यों सूंघ नाहीं लेत आतुर क्यों न चातुरता धरै। तुहि काल गटकै नाहिं अटकै छोड़ तुझकों गिर परे ॥६॥ कोई खरा कोई बुरा नहिं, वस्तु विविध स्वभाव है। तू वृथा विकलप ठान उर में करत राग उपाव है।। यूँ भाव आस्रव बनत तू ही द्रव्य आस्रव सुन कथा। तुझ हेतु से पुद्गल करम बन निमित्त हो देते व्यथा॥७॥ तन भोग जगत सरूप लख डर भविक गुरु शरणा लिया। सुन धर्म धारा भर्म गारा हर्षि रुचि सन्मुख भया।। इन्द्री अनिन्द्री दाबि लीनी त्रस रु थावर बध तजा। तब कर्म आस्रव द्वार रोकै ध्यान निज में जा सजा।।८।। तज शल्य तीनों बरत लीनो बाह्याभ्यंतर तप तपा। उपसर्ग सुर-नर-जड़-पशु-कृत सहा निज आतम जपा।। तब कर्म रस बिन होन लागे, द्रव्य-भावन निर्जरा। सब कर्म हरकै मोक्ष वरकै रहत चेतन ऊजरा ।।९।। विच लोकनन्ता लोक माँही लोक में सब द्रव भरा। सब भिन्न-भिन्न अनादि रचना निमित्त कारण की धरा॥ जिनदेव भाषा तिन प्रकाशा भर्म नाशा सुन गिरा। सुर मनुष तिर्यक् नारकी हुई ऊर्ध्व मध्य अधो धरा॥१०॥
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