________________
वैराग्य पाठ संग्रह निरावरण निर्लेप अनाहारी हो स्वामी, अनुभव-अमृत भोजी नित्य निराकुल नामी ।।११।। अहो आप सम आप कहाँ तक महिमा गाऊँ, यही भावना सहज अकिंचन पद प्रगटाऊँ। चरणों में है भक्ति भाव से नमन जिनेश्वर, निज प्रभुता में मग्न रहूँ तुम सम परमेश्वर ॥१२॥
(दोहा) जग से आप उदास हो, जगत आपका दास । यही भावना है प्रभो ! रहूँ आपके पास ।।
निर्ग्रन्थ भावना निर्ग्रन्थता की भावना अब हो सफल मेरी। बीते अहो आराधना में हर घड़ी मेरी ।।टेक.......॥ करके विराधन तत्त्व का, बहु दु:ख उठाया। आराधना का यह समय, अतिपुण्य से पाया ।। मिथ्या प्रपंचों में उलझ अब, क्यों करूँ देरी ? निर्ग्रन्थता...॥१॥ जब से लिया चैतन्य के, आनन्द का आस्वाद। रमणीक भोग भी लगें, मुझको सभी निःस्वाद ॥ ध्रुवधाम की ही ओर दौड़े, परिणति मेरी ॥ निर्ग्रन्थता...॥२॥ पर में नहीं कर्त्तव्य मुझको, भासता कुछ भी। अधिकार भी दीखे नहीं, जग में अरे कुछ भी॥ निज अंतरंग में ही दिखे, प्रभुता मुझे मेरी।। निर्ग्रन्थता...||३|| क्षण-क्षण कषायों के प्रसंग, ही बनें जहाँ। मोही जनों के संग में, सुख शान्ति हो कहाँ ।। जग-संगति से तो बढ़े, दुखमय भ्रमण फेरी॥ निर्ग्रन्थता...॥४॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org