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वैराग्य पाठ संग्रह ज्ञान ही है सार जग में, शेष सब निस्सार है। ज्ञान से च्युत परिणमन का नाम ही संसार है। ज्ञानमय निजभाव को बस भूलना अपराध है। ज्ञान का सम्मान ही, संसिद्धि सम्यक् राध* है ।।७।। अज्ञान से ही बंध, सम्यग्ज्ञान से ही मुक्ति है। ज्ञानमय संसाधना, दुख नाशने की युक्ति है। जो विराधक ज्ञान का, सो डूबता मंझधार है। ज्ञान का आश्रय करे, सो होय भव से पार है।।८।। यों जान महिमाज्ञान की, निजज्ञान को स्वीकार कर। ज्ञान के अतिरिक्त सब, परभाव का परिहार कर ॥ निजभाव से ही ज्ञानमय हो, परम-आनन्दित रहो। होय तन्मय ज्ञान में, अब शीघ्र शिव-पदवी धरो ।।९।।
पथिक-संदेश ___ अरे क्यों इधर भटकता है ? मूढ़ पथिक ! क्यों इस अटवी के निकट फटकता है ?।।टेक।। यह संसार महा अटवी है, विषय चोर दुख रूप। लूट रहे धोखा दे दे कर, तेरी निधि चिद्रूप॥ शीघ्र क्यों नहीं सटकता है ? अरे क्यों इधर भटकता है॥१॥ मरु भूमि सम है ये नीरस, यहाँ क्यों बैठा आय !। भाग यहाँ से अरे पथिक! तू अब मत धोखा खाय । यहाँ तू व्यर्थ ठिठकता है, अरे क्यों इधर भटकता है ॥२॥ इस वन के भीतर रहते हैं, पंच इन्द्रिय मय चोर। उनका नृत्य मनोहर है, ज्यों वन में नाचे मोर ।।
देख क्यों व्यर्थ बहकता है ? अरे क्यों इधर भटकता है ॥३॥ * आराधना, प्रसन्नता
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