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________________ 41 वैराग्य पाठ संग्रह कर्म और उसके फल से भी, भिन्न एक अपने को जान। . सिद्ध सदृश अपने स्वरूप का, कर चेतन दृढ़तम श्रद्धान ॥२२॥ तूने अपने ही हाथों से, बिछा लिया है भीषण जाल। नहीं छूटता है अब इससे, ममता वश सारा जंजाल । छोड़े बिना नहीं पावेगा, कभी शान्ति का नाम निशान। परमशान्ति के लिए अलौकिक, कर अब तू बोधामृत पान ।।२३।। शत्रु मित्र की छोड़ कल्पना, सुख-दुख में रख समता भाव । रत्न और तृण में रख समता, जान वस्तु का अचल स्वभाव॥ निन्दा सुनकर दुखित न हो तू, यशोगान सुन हो न प्रसन्न । मरण और जीवन में सम हो, जगत इन्द्र सब ही हैं भिन्न ॥२४॥ इस संसार भ्रमण में चेतन, हुआ भूप कितनी ही बार। क्षीण पुण्य होते ही तू तो, हुआ कीट भी अगणित बार ।। प्राप्त दिव्य मानव जीवन में, कर न कभी तू लेश ममत्व। करके दूर चित्त अस्थिरता, समझ सदा अपना अपनत्व ॥२५।। पर गुण-पर्यायों में चेतन, त्यागो तुम अब अपनी दौड़। कर विचार शुचि आत्मद्रव्य का, परपरिणति से मुख को मोड़॥ एक शुद्ध चेतन अपना ही, ग्रहण योग्य है जग में सार। शान्तचित्त हो पर-पुद्गल से, हटा शीघ्र अपना अधिकार ॥२६।। परमार्थ विंशतिका राग-द्वेष की परिणति के वश, होते नाना भाँति विकार । जीव मात्र ने उन भावों को, देखा सुना अनेकों बार ।। किन्तु न जाना आत्मतत्त्व को, है अलभ्य सा उसका ज्ञान । भव्यों से अभिवन्दित है नित, निर्मल यह चेतन भगवान ॥१॥ अर्न्तबाह्य विकल्प जाल से, रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप। शान्त और कृत-कृत्य सर्वथा, दिव्य अनन्त चतुष्टय रूप॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003171
Book TitleVairagya Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
PublisherKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publication Year2010
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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