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वैराग्य पाठ संग्रह आत्मज्ञान बिन चक्री इन्द्रादिक भी, तृप्ति नहीं पावें। सम्यक् ज्ञानी नरकादिक में भी अपूर्व शान्ति पावें॥ इसीलिये चक्री तीर्थंकर, बाह्य विभूति को तजते । हो निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुनिवर, चिदानन्द पद में रमते॥ धन्य-धन्य वे ज्ञानी ध्यावें, समयसार निज समय-समय॥आत्मन्.॥५॥ चक्रवर्ती की नवनिधियाँ पर, निज निधियों का पार नहीं। चौदह रत्न चक्रवर्ती के, आतम गुण भण्डार सही। चक्रवर्ती का वैभव नश्वर, आत्म-विभूति अविनाशी। जो पावे सो होय अयाची, कट जाये आशापाशी।। झूठी दैन्य निराशा तजकर, पाओ वैभव मंगलमय ।।आत्मन्.॥६॥ चंचल विपुल विकल्पों को तो, एक स्फुलिंग ही नाशे। आतम तेजपुञ्ज सर्वोत्तम, कौन मुमुक्षु न अभिलाषे॥ चिंतामणि तो पुण्य प्रमाणे, जग इच्छाओं को पूरे। धन्य-धन्य चेतन चिंतामणि, क्षण में वांछायें चूरे।। निर्वांछक हो अहो अनुभवो, अविनश्वर कल्याण मय ।।आत्मन्.।।७।। जिनधर्मों की पूजा करते, उनका धर्मी शुद्धातम । परमपूज्य जानो पहिचानो, शुद्ध चिदम्बर परमातम ।। परमपारिणामिक ध्रुवज्ञायक, लोकोत्तम अनुपम अभिराम। नित्यनिरंजन परमज्योतिमय, परमब्रह्म अविचल गुणधाम। करो प्रतीति अनुभव परिणति, निज में ही हो जाय विलय |आत्मन्.।।८।। गुरु की गुरुता, प्रभु की प्रभुता, आत्माश्रय से ही प्रगटे। भव-भव के दुखदायी बंधन, स्वाश्रय से क्षण में विघटे। आत्मध्यान ही उत्तम औषधि, भव का रोग मिटाने को। आत्मध्यान ही एक मात्र साधन है, शिवसुख पाने को। झूठे अहंकार को छोड़ो, शुद्धातम की करो विनय |आत्मन्.॥९॥
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