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वैराग्य पाठ संग्रह
मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया । पर निन्दा गाली चुगली जो, मुँह पर आया वमन किया || १०|| निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे । निर्मलजल की सरिता सदृश, हिय में निर्मलज्ञान बहे ॥ ११ ॥ मुनि चक्री शक्री के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे । गाते वेद पुराण जिसे वह, परम देव मम हृदय रहे ॥ १२ ॥ दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार ही वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे ॥ १३ ॥ जो भवदुःख का विध्वंसक है, विश्वविलोकी जिसका ज्ञान । योगी जन के ध्यानगम्य वह, बसे हृदय में देव महान || १४ || मुक्तिमार्ग का दिग्दर्शक है, जन्म-मरण से परम अतीत । निष्कलंक त्रैलोक्य दर्शि वह, देव रहे मम हृदय समीप ॥ १५ ॥ निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे ना द्वेष रहे। शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञानस्वरूपी, परम देव मम हृदय रहे || १६ || देख रहा जो निखिल विश्व को, कर्मकलंक विहीन विचित्र । स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह, देव करे मम हृदय पवित्र ||१७|| कर्मकलंक अछूत न जिसका, कभी छू सके दिव्य प्रकाश । मोहतिमिर को भेद चला जो, परमशरण मुझको वह आप्त ॥ १८ ॥
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जिसकी दिव्यज्योति के आगे फीका पड़ता सूर्य प्रकाश । स्वयं ज्ञानमय स्वपर प्रकाशी, परमशरण मुझको वह आप्त ॥ १९ ॥ जिसके ज्ञानरूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ । आदि-अंत से रहित शांत शिव, परमशरण मुझको वह आप्त ॥ २० ॥ जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव । भय-विषाद-चिन्ता सब जिसके, परमशरण मुझको वह देव ॥२१॥
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