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वैराग्य पाठ संग्रह रहें सहज ही ज्ञाता-दृष्टा, हो विवेकमय निर्मल चेष्टा। वीतराग-विज्ञान परिणति, जग में नित जयवंत रहे॥७॥ तत्त्वज्ञान को सब ही पावें, मुक्तिमार्ग सब ही प्रगटावें। सुखी रहें सब जीव भावना, जग में नित जयवंत रहे।।८।। जिनशासन है प्राण हमारा, मंगलोत्तम शरण सहारा। नमन सहज अविकारी सुखमय, जग में नित जयवंत रहे ।।९।। सेवें जिनशासन सुखकारी, शान बढावें मंगलकारी। सत्यपन्थ निर्ग्रन्थ दिगम्बर, जग में नित जयवंत रहे॥१०॥
परमार्थ-शरण अशरण जग में शरण एक शुद्धातम ही भाई। धरो विवेक हृदय में आशा पर की दुखदाई॥१॥ सुख दुख कोई न बाँट सके यह परम सत्य जानो। कर्मोदय अनुसार अवस्था संयोगी मानो।।२।। कर्म न कोई देवे-लेवे प्रत्यक्ष ही देखो। जन्म-मरे अकेला चेतन तत्त्वज्ञान लेखो॥३॥ पापोदय में नहीं सहाय का निमित्त बने कोई। पुण्योदय में नहीं दण्ड का भी निमित्त होई ।।४।। इष्ट-अनिष्ट कल्पना त्यागो हर्ष-विषाद तजो। समता धर महिमामय अपना आतम आप भजो॥५।। शाश्वत सुखसागर अन्तर में देखो लहरावे। दुर्विकल्प में जो उलझे वह लेश न सुख पावे ॥६॥ मत देखो संयोगों को कर्मोदय मत देखो। मत देखो पर्यायों को गुणभेद नहीं देखो।।७।। अहो देखने योग्य एक ध्रुव ज्ञायक प्रभु देखो। हो अन्तर्मुख सहज दीखता अपना प्रभु देखो॥८॥
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