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________________ वैराग्य पाठ संग्रह अकलंक कहा भाई तुम अपने को बचाओ। निकलंक बोले भ्रात उर में मोह मत लाओ ॥ तुम अति समर्थ धर्म की रक्षा में हे भाई ॥ प्राणों पर... ।। १६ ।। जल्दी करो अब न समय, मैं भावना भाऊँ । हो धर्म की प्रभावना, मैं शीश नवाऊँ ॥ जबरन् छिपा दिया, अहो धनि युक्ति यह आई ॥ प्राणों पर...॥ १७॥ धोबी को लेकर साथ फिर निकलंक थे दौड़े। आये निकट थे सैनिकों के शीघ्र ही घोड़े ॥ आदर्श छोड़ गये अपना शीश कटाई ॥ प्राणों पर खेल की, धर्म की रक्षा सुखदाई ॥ १८ ॥ होकर विरक्त ली अहो, अकलंक मुनि दीक्षा । शास्त्रार्थ में पाकर विजय, की धर्म की रक्षा ॥ जिनधर्म की पावन पताका, फिर से फहराई ॥ प्राणों ... ॥ १९ ॥ प्राणों ... ॥ २० ॥ राजा हिम शीतल की सभा, में था हुआ विवाद । छह माह तक बाँटा था, श्री जिनधर्म का प्रसाद ।। परदा हटा घट फोड़ तारा देवी भगाई ॥ निकलंक का उत्सर्ग तो, सोते से जगाये। अकलंक का दर्शन अहो, सद्द्बोध कराये ॥ जिनशासन के नभ मण्डल में रवि शशि सम दो भाई ॥ प्राणों ...॥ २१ ॥ अकलंक अरु निकलंक का आदर्श अपनायें । युक्ति सद्ज्ञान, आचरण से धर्म मंगलमय ब्रह्मचर्य होवे हमको सहाई ॥ सेठ सुदर्शन गाथा धनि धन्य हैं सेठ सुदर्शन, अद्भुत शील- व्रतधारी । जिनकी पावन दृढ़ता से, कुटिला नारी भी हारी ॥ टेक ॥ Jain Education International 109 For Private & Personal Use Only दिपायें ॥ प्राणों ... ॥२२॥ www.jainelibrary.org
SR No.003171
Book TitleVairagya Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
PublisherKundkund Digambar Jain Mumukshu Mandal Trust Tikamgadh
Publication Year2010
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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