SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 223 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह यह धूम-घूमरी खा खा कर, उड़ रहा गगन की गलियों में। अज्ञानतमावृत चेतन ज्यों, चौरासी की रंग रलियों में ।। संदेश धूप का तात्त्विक प्रभु, तुम हुए ऊर्ध्वगामी जग से। प्रगटे दशाँग प्रभुवर तुम को, अन्तः दशाँग की सौरभ से॥ ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपम् नि. स्वाहा। शुभ-अशुभ वृत्ति एकांत दुख, अत्यंत मलिन संयोगी है। अज्ञान विधाता है इनका, निश्चित चैतन्य विरोधी है।। काँटों सी पैदा हो जाती, चैतन्य सदन के आँगन में। चंचल छाया की माया सी, घटती क्षण में बढ़ती क्षण में। तेरी पूजा का फल प्रभुवर ! हों शान्त शुभाशुभ ज्वालायें। मधुकल्प फलों-सी जीवन में, प्रभु शान्त लतायें छा जायें। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। निर्मल जल-सा प्रभु निजस्वरूप, पहिचान उसी में लीन हुए। भवताप उतरने लगा तभी, चन्दन-सी उठी हिलोर हिये। अविराम भवन प्रभु अक्षत का, सब शक्ति प्रसून लगे खिलने। क्षुत् तृषा अठारह दोष क्षीण, कैवल्य प्रदीप लगा जलने । मिट चली चपलता योगों की, कर्मों के ईंधन ध्वस्त हुए। फल हुआ प्रभो ! ऐसा मधुरिम, तुम धवल निरंजन व्यक्त हुए। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं नि. स्वाहा। जयमाला वैदही हो देह में, अतः विदेही नाथ । सीमंधर निज सीम में, शाश्वत करो निवास ।। श्रीजिन पूर्व विदेह में, विद्यमान अरहंत । वीतराग सर्वज्ञ श्री सीमंधर भगवंत ।। हे ज्ञानस्वभावी सीमंधर, तुम हो असीम आनन्द रूप । अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्य भूप ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy