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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, होकर संसार बढ़ाया है।
सन्तप्त हृदय प्रभु ! चन्दन सम, शीतलता पाने आया है। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा।
उज्ज्वल हूँ कुन्द धवल हूँ प्रभु ! पर से न लगा हूँ किंचित् भी। फिर भी अनुकूल लगें उन पर, करता अभिमान निरंतर ही॥ जड़ पर झुक-झुक जाता चेतन, की मार्दव की खंडित काया। निज-शाश्वत अक्षयनिधि पाने, अब दास चरण रज में आया। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा।।
यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं। निज अन्तर का प्रभु ! भेद कहूँ, उसमें ऋजुता का लेश नहीं। चिंतन कुछ फिर संभाषण कुछ, क्रिया कुछ की कुछ होती है । स्थिरता निज में प्रभु पाऊँ, जो अन्तर-कालुष धोती है। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।
अबतक अगणित जड़द्रव्यों से प्रभु ! भूख न मेरी शान्त हुई। तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही। युग-युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूँ। पंचेन्द्रिय मन के षट्स तज, अनुपम रस पीने आया हूँ। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। मेरे चैतन्य सदन में प्रभु ! चिर व्याप्त भयंकर अंधियारा। श्रुत-दीप बुझा हे करुणानिधि ! बीती नहिं कष्टों की कारा॥ अतएव प्रभो ! यह ज्ञान प्रतीक, समर्पित करने आया हूँ। तेरी अंतर लौ से निज अंतर, दीप जलाने आया हूँ। ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
जड़कर्म घुमाता है मुझको, यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी। मैं रागी-द्वेषी हो लेता, जब परिणति होती है जड़ की ।। यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध अनल से प्रभु ! परगंध जलाने आया हूँ॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।
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