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________________ 195 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह जब बाह्य मुमुक्षु रूप धार, ज्ञानाम्बर को धारण करता। अत्यन्त मलिन रागाम्बर-तज, सुन्दर शिवरूप प्रकट करता ।।१२।। एकत्व ज्ञानमय ध्रुव स्वभाव ही, एक मात्र सुन्दर जग में। जिसकी परिणति उसमें ठहरे, वह स्वयं विचरती शिवमग में ॥१३॥ वह समवसरण में सिंहासन पर, गगन मध्य शोभित होता । रत्नत्रय के भूषण पहने, अपनी प्रभुता प्रगटाता ।।१४।। पर नहीं यहाँ भी इतिश्री, योगों को तज स्थिर होता। अरु एक समय में सिद्ध हुआ, लोकाग्र जाय अविचल होता ॥१५।। समता षोडसी समता रस का पान करो, अनुभव रस का पान करो। शान्त रहो शान्त रहो, सहज सदा ही शान्त रहो।।टेक।। नहीं अशान्ति का कुछ कारण, ज्ञान दृष्टि से देख अहो। क्यों पर लक्ष करे रे मूरख, तेरे से सब भिन्न अहो॥१॥ देह भिन्न है कर्म भिन्न हैं, उदय आदि भी भिन्न अहो। नहीं अधीन हैं तेरे कोई, सब स्वाधीन परिणमित हो॥२॥ पर नहीं तुझसे कहता कुछ भी, सुख दुख का कारण नहीं हो। करके मूढ़ कल्पना मिथ्या, तू ही व्यर्थ आकुलित हो॥३॥ इष्ट अनिष्ट न कोई जग में, मात्र ज्ञान के ज्ञेय अहो। हो निरपेक्ष करो निज अनुभव, बाधक तुमको कोई न हो॥४॥ तुम स्वभाव से ही आनंद मय, पर से सुख तो लेश न हो। झूठी आशा तृष्णा छोड़ो, जिन वचनों में चित्त धरो॥५॥ पर द्रव्यों का दोष न देखो, क्रोध अग्नि में नहीं जलो। नहीं चाहो अनुरूप प्रवर्तन, भेदज्ञान ध्रुव दृष्टि धरो।।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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