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आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह
अपनी भूल विवश नर तब तक, लेता रहा खली का स्वाद। जबतक उसे स्वच्छ मधु रसमय, नहीं शर्करा का हो स्वाद॥१७॥ ध्यानाश्रित निर्ग्रन्थ भाव से, मुझे हुआ है जो आनन्द। दुर्ध्यानाक्ष सुखों का तो फिर, कैसे करे स्मरण मतिमन्द ? ऐसा कौन मनुज है जग में, तज करके जो जलता गेह। छोड़ वापिका का शीतल जल, पड़े अग्नि में आप सनेह ॥१८॥ मोह जन्य मोक्षाभिलाषि भी, करे मोक्ष का स्वयं विरोध । अन्य द्रव्य की करें न इच्छा, जिन्हें तत्त्व का है शुभ बोध ।। आलोचन में दत्तचित्त नित, शुद्ध आत्म का जिन्हें विचार । तत्त्व ज्ञान में तत्पर मुनिजन ग्रहें नहीं ममता का भार ॥१९॥ इस निर्मल चेतन के सुख का, जिस क्षण आता है आस्वाद । विषय नष्ट होते सारे तब, रस समस्त लगते निस्वाद ।। होती दूर देह की ममता, मन वाणी हो जाते मौन । गोष्ठी कथा, कुतूहल छूटे, उस सुख को नर जाने कौन ॥२०॥ वचनातीत, पक्ष च्युत सुन्दर निश्चय नय से है यह तत्व । व्यवहृति पथ में प्राप्त शिष्य, वचनों द्वारा समझें आत्मत्व ।। करूँ तत्त्व का दिव्य कथन मैं, नहीं यहाँ वह शक्ति समृद्धि। जान अशक्त आपको इसमें, मौन रहे मुझसा जड़बुद्धि ॥२१॥
ऐसा योग्य मनुष्य भव एवं सत्संग के साधन मिले हैं
और जीव विचार न करे। तब यह क्या पशु की देह में विचार करेगा ? कहाँ करेगा?
धर्म यह वस्तु बहुत गुप्त रही है। वह बाह्य संशाधनों से मिलने
वाली नहीं है। अपूर्व अंत:संशोधन से ही प्राप्त होती है।
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