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________________ 187 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह घिन गेह देह जड़ रूपा, पोषत नहिं सुक्ख स्वरूपा। जब इससे मोह हटावे, तब ही निज रूप दिखावे ॥२३॥ वनिता बेड़ी गृह कारा, शोषक परिवार है सारा। शुभ जनित भोग जो पाई, वे भी आकुलता दायी॥२४॥ सबविधि संसार असारा बस निज स्वभाव ही सारा। निज में ही तृप्त रहूँ मैं, निज में संतुष्ट रहूँ मैं ।।२५।। निज स्वभाव का लक्ष्य ले, मैं→ सकल विकल्प। सुख अतीन्द्रिय अनुभवू, यही भावना अल्प ॥२६॥ परमार्थ विंशतिका राग-द्वेष की परिणति के वश, होते नाना भाँति विकार। जीव मात्र ने उन भावों को, देखा सुना अनेकों बार ॥ किन्तु न जाना आत्मतत्त्व को, है अलभ्य सा उसका ज्ञान। भव्यों से अभिवन्दित है नित, निर्मल यह चेतन भगवान ॥१॥ अर्न्तबाह्य विकल्प जाल से, रहित शुद्ध चैतन्य स्वरूप। शान्त और कृत-कृत्य सर्वथा, दिव्य अनन्त चतुष्टय रूप॥ छूती उसे न भय की ज्वाला, जो है समता रस में लीन। वन्दनीय वह आत्म-स्वस्थता, हो जिससे आत्मिक सुखपीन ॥२॥ एक स्वच्छ एकत्व ओर भी, जाता है जब मेरा ध्यान। वही ध्यान परमात्म तत्त्व का, करता कुछ आनन्द प्रदान । शील और गुण युक्त बुद्धि जो, रहे एकता में कुछ काल। हो प्रगटित आनन्द कला वह, जिसमें दर्शन ज्ञान विशाल ॥३॥ नहीं कार्य आश्रित मित्रों से, नहीं और इस जग से काम। नहीं देह से नेह लेश अब, मुझे एकता में आराम ।। विश्वचक्र में संयोगों वश, पाये मैंने अतिशय कष्ट । हुआ आज सबसे उदास मैं, मुझे एकता ही है इष्ट ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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