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________________ 184 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह जय वीत-क्षोभ जय वीत-काम, निर्दोष परम प्रभुता ललाम। दृग ज्ञान सुक्ख वीरज अनंत, जय गुण अनंत महिमा अनंत ॥ ध्रुव धर्म तीर्थ पाकर जिनेश, आनंद हुआ उर में विशेष । प्रभु दूर हुए सब पाप ताप, संतुष्ट आप में हुआ आप। देखत प्रभु को निज रूप दिखे, दुर्मोह मिटे दुष्कर्म नशे। विभु धन्य अलौकिक गुणनिधान, करते भक्तों को निज समान ॥ जिन आराधन की लगी लगन, मैं द्रव्य-भाव से बनूँ नगन। भाऊँ ध्याऊँ ज्ञायक स्वरूप, देहादि दिखें अति भिन्न रूप ॥ उपसर्ग परीषह सहज जीत, अपनाऊँ मैं परमार्थ नीति । ऐसा पुरुषार्थ जगे स्वयमेव, साम्राज्य मुक्ति का लहूँ देव ।। भव-भव का दुखमय भ्रमण नाश, तिष्ट्रं सिद्धालय आप पास। सब जीव लहें निज तत्त्वज्ञान, पावें सम्यग्दर्शन महान ॥ मैत्री प्रमोद कारुण्य भाव, माध्यस्थ धार साधे स्वभाव । विपरीत विकल्पों को सु त्याग, सब लगें लगावें मुक्तिमार्ग। दिन दूना धर्म प्रभाव बढ़े, दुर्व्यसन उपद्रव दूर रहें। चित शान्त रहे सन्तुष्ट रहे, नित आनन्द मंगल सहज बढ़े॥ भक्ति वश निज हित के निमित्त, पूजन विधान कीना पवित्र । प्रभु भूल चूक सब क्षमा होय, मम परिणति पूर्ण पवित्र होय॥ ॐ ह्रीं श्री वृषभादिमहावीरान्त चतुर्विंशतिजिनेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा) जिस विधि से जिनवर लहा, परमानन्द अम्लान । उस विधि से ही हे विभो ! होऊँ आप समान ॥ ॥ पुष्पांजलिं क्षिपामि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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