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________________ 115 जयमाला (दोहा) Jain Education International आध्यात्मिक पूजन - विधान संग्रह इन्द्रादिक पूजित चरण, धन्य-धन्य जिनराज । भक्तिसहित गुण गाँय हम, पावें सुगुण समाज ॥ (छन्द-पद्धरि) जय सुमति जिनेश्वर गुण गरिष्ट, दर्शायो निजपद परम इष्ट । प्रभु स्वयंसिद्ध मंगलस्वरूप, बिन्मूरति चिन्मूरति अनूप ॥ निरपेक्ष निरामय निर्विकार, जयवन्तो शाश्वत समयसार । निज साधन से ही साध्य हुए, आराधन कर आराध्य हुए ॥ अक्षय अनंत गुण प्रगटाये, कर्मों के बादल विघटाये । जय दर्शन - ज्ञान अनंत देव, सुख-वीर्य अनंत हुए स्वयमेव ॥ अद्भुत प्रभुता जिनराज अहो, महिमा है अपरम्पार प्रभो । निष्काम स्वयं में रहे पाग, जग से निस्पृह हे वीतराग ॥ निर्भूषण जग - भूषण जिनेश, नाशे प्रभु जग के सब क्लेश । जब शान्तमूर्ति का अवलोकन, अनुपमस्वरूप का हो चिन्तन ॥ रागादि स्वयं ही होंय मंद हों शिथिल सहज ही कर्म बन्ध । स्वाभाविक आनन्द स्वाद पाय, फिर परिणति निज में ही रमाय ॥ नाशे पर की झूठी ममता, सब में समता निज में रमता । परिणाम सहज अविकारी हो, मंगलमय मंगलकारी हो । लक्ष्मी चरणों की दासी हो, फिर भी प्रभु सहज उदासी हो । इन्द्रादिक पद की चाह न हो, उपसर्गों की परवाह न हो ॥ अन्तर्पुरुषार्थ बढ़े स्वामी, हो साधु दशा त्रिभुवननामी । वृद्धिंगत होवे रत्नत्रय, कर्मों का होता जावे क्षय ॥ रागादि दोष निःशेष होंय, प्रभु आत्मीक गुण प्रगट होंय । यो मोक्षमार्ग का निमित्त देख, जागी उर में भक्ति विशेष ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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