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________________ 121 क्रमबद्धपर्याय : प्रासंगिक प्रश्नोत्तर प्रत्येक पदार्थ में प्रत्येक कार्य पुरुषार्थ पूर्वक ही होता है अर्थात् उसमें उसकी परिणमन शक्ति खर्च होती है। कार यदि आगे चले तो भी पेट्रोल जलता है और पीछे चले तो भी पेट्रोल जलता है। सातवें नरक की आयु बांधने योग्य परिणामों में तीव्रतम पापरूप पुरुषार्थ, तीर्थंकर प्रकृति बाँधने योग्य परिणामों में तीव्रतम पुण्यरूप पुरुषार्थ और सकल कर्मक्षय योग्य परिणमों में स्वभाव-सन्मुखता का अनन्त पुरुषार्थ होता है। मोक्षमार्ग के प्रकरण में पुरुषार्थ की व्याख्या निम्नानुसार की जाती है। पुरु-उत्तम चेतना गुण में, सेते स्वामी होकर प्रवर्तन करे, अर्थात् ज्ञानदर्शन चेतना के स्वामी को पुरुष कहते हैं। अर्थ = प्रयोजन। उत्तम चेतना गुण के स्वामी होकर प्रवर्तन करना जिसका प्रयोजन है, उसे पुरुषार्थ कहते हैं। मुक्ति के मार्ग में आत्मानुभव की प्राप्ति का प्रयास ही पुरुषार्थ है। मोह-राग-द्वेष आदि परिणामों को मोक्षमार्ग की अपेक्षा मिथ्यापुरुषार्थ, विपरीतपुरुषार्थ, नपुंसकता, पुरुषार्थ की कमजोरी इत्यादि शब्दों से सम्बोधित किया जाता है। (3) काललब्धि :- किसी कार्य की उत्पत्ति का स्व-काल ही काललब्धि है। जिस समय तिल में से तेल निकला वह समय ही तेल निकलने की काललब्धि है। अथवा जिस समय जीव को सम्यग्दर्शन हुआ वह समय ही काललब्धि है। प्रत्येक कार्य अपने स्व-काल में त्रिकाल विद्यमान रहता है, तथा स्वकाल आने पर ही वस्तु में प्रगट होता है। किसी कार्य के प्रगट होने का स्व-काल निश्चित होना ही क्रमबद्धपर्याय है। उसके स्व-काल से पहले या पीछे उसे प्रगट नहीं किया जा सकता, तथा स्वकाल में प्रगट होने से उसे रोका नहीं जा सकता। (4) भवितव्य :- होने योग्य कार्य ही भवितव्य है। इसे होनहार भी कहते हैं। तिल में से तेल निकला अथवा जीव को सम्यग्दर्शन हुआ, तो तेल और सम्यग्दर्शन कार्य है अर्थात् भवितव्य है। भू-धातु में तव्यत् प्रत्यय लगाने से भवितव्य शब्द बनता है, जिसका अर्थ होने योग्य' होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003169
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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