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क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका प्रवाह की अपेक्षा देखा जाए तो वह सम्यक्त्व भाव अपने स्वकाल में सदैव निश्चित है, कभी आगे-पीछे नहीं होगा, अतः अखण्ड प्रवाह में उसका काल ध्रुव है। इसप्रकार सम्यग्दर्शनरूप परिणाम में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य एक साथ घटित होने से वह त्रिलक्षणमय है। यही विलक्षण परिणाम पद्धति है।
प्रश्न 4. सम्यग्दर्शन पर्याय कालरूप है या भावरूप है? ..
उत्तर :- तत्त्वार्थ सूत्र ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में जीव के तिरेपन भावों का वर्णन किया गया है। उसमें सम्यग्दर्शन की चर्चा उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक भाव के अन्तर्गत आई है। अतः जीव के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव में सम्यग्दर्शन उसका अन्तर्भाव का अन्तर्भाव भाव में ही है। जब द्रव्य-गुण-पर्याय की चर्चा की जाए, तब काल और भाव दोनों के अभेदरूप से उसे पर्याय कहा जाता है।
मिथ्यादर्शन तथा शुभाशुभ भाव औदयिकभाव हैं। उपशम क्षयोपशम, क्षायिक और औदयिक ये चारों भाव पर्यायरूप हैं, अर्थात् प्रवाहक्रम के सूक्ष्म अंशरूप परिणामों में उत्पन्न होने से उत्पाद-व्ययरूप हैं। परम-पारिणामिक भाव स्वरूपज्ञायक भाव त्रिकाल, एक अखण्ड ध्रुवरूप है, वह उत्पाद-व्ययरूप नहीं है।
प्रश्न 5. द्रव्य-क्षेत्र काल और भाव परस्पर भेदरूप हैं या अभेदरूप?
उत्तर :- भाई! वस्तु में भेद और अभेद दोनों धर्म हैं, अतः उत्पाद-व्ययध्रुव; द्रव्य-गुण-पर्याय तथा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव; कथंञ्चित् भिन्न भी हैं और कथञ्चित अभिन्न भी हैं। जब वस्तु को उसके स्व-चतुष्टय के माध्यम से समझा जाता है तो इन चारों का भिन्न-भिन्न स्वरूप निम्नानुसार समझना चाहिए :
द्रव्य = गुण-पर्यायों अथवा क्षेत्र काल और भाव को धारण करने वाली मूल सत्ता।
क्षेत्र = द्रव्य का विस्तार अर्थात् उसके द्वारा ग्रहण किया गया स्थान ।
काल = द्रव्य की अनादि-अनन्त अखण्ड स्थिति जिसमें प्रतिसमय-वर्ती परिणमन अखण्डरूप से सम्मिलित हैं।
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