________________
३८
आलोक प्रज्ञा का
११०. निर्ममत्वस्य संसिद्धयं, व्यवहारोऽपि तादृशः ।
कार्यो व्यवहारशून्यस्य, सिद्धान्तो नार्थवान् भवेत् ॥ निर्ममत्व की संसिद्धि के लिए व्यवहार भी निर्ममत्व के अनुरूप होना चाहिए। व्यवहारशून्य सिद्धान्त सार्थक नहीं होता।
श्रेय और प्रेय
१११. कषोपला विवर्तन्ते, श्रेयः प्रेयोभिबाधते ।
देहस्थाने स्थितश्चात्मा, जाते सम्यक्त्वदर्शने ॥
देव ! सम्यक्त्व की प्राप्ति से जीवन में क्या रूपान्तरण होता है ?
विनेय ! उससे जीवन की कसौटियां बदल जाती हैं। मिथ्यादर्शन के समय प्रेय श्रेय को तिरोहित करता है, आत्मा देह से आवृत रहती है। सम्यक्त्व की प्राप्ति से प्रेय श्रेय के द्वारा तिरोहित हो जाता है और कर्तव्य की कसौटी श्रेय और आत्मा बन जाती है।
अन्तरात्मा : बहिरात्मा ११२. बहिरात्मा तु सर्वत्र, शरीरमनुवर्तते ।
अन्तरात्मा शरीरञ्च, पुष्णात्यात्मानमीक्षते ।। गुरुदेव ! बहिरात्मा और अन्तरात्मा में क्या अन्तर है ?
शिष्य ! बहिरात्मा सर्वत्र शरीर का अनुवर्तन करता है, अन्तरात्मा शरीर को पोषण देता है, किन्तु उसकी दृष्टि आत्मा पर लगी रहती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org