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आलोक प्रज्ञा का
जिसकी धृति सत्य में निहित है, उसकी अपनी आत्मा ही अपना मित्र है। जो अपने द्वारा अपने आपका निग्रह करता है, उसका अस्तित्व सनातन बना रहता है ।
___परम सुख ?
१०५. असन्तोषः बहिःकांक्षा, सन्तोषः प्रीतिरात्मनि ।
सन्तोषः परमं सौम्यं, असन्तोषोऽसुखं परम् ।।
गुरुदेव ! मैंने सुना है कि सन्तोष परम सुख है और असन्तोष परम दुःख है । ऐसा क्यों ? __ शिष्य ! असन्तोप बाह्य की आकांक्षा है, सन्तोष आत्मा में प्रीति है। इसलिए सन्तोष परम सुख है और असंतोष परम दु.ख है।
समाधि का मूल्य
१०६. दुःखगर्भ मोहगर्भ, ज्ञानगर्भमनुत्तरम् ।
वैराग्यं त्रिविधं प्रोक्तं, जानिभिः परमधिभिः ॥
भन्ते ! मैं समाधि चाहता हूं। वह कैसे प्राप्त हो सकती
भद्र ! वह प्राप्त हो सकती है वैराग्य से । परम ऋषियों तथा ज्ञानियों ने उसके तीन प्रकार बतलाए हैं---दु:ख से होने वाला वैराग्य, मोह से होने वाला वैराग्य और ज्ञान से होने वाला वैराग्य । तीनों में ज्ञानगर्भ वैराग्य अनुत्तर है ।
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