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________________ ३४ आलोक प्रज्ञा का उसमें दो इच्छाएं प्रमुख हैं.--आत्मरक्षा की इच्छा और आत्मतृप्ति-अधिकतम सुख पाने की इच्छा । मनुष्य इन दोनों के लिए सर्वाधिक प्रयत्न करता है। भोग : आसक्ति और मात्रा ६६. आसक्तः कियती मात्रा, मात्रा भोगस्य कीदृशी? दृष्टिकोणः किंधकारः, भोगे चिन्त्यमिदं मुहुः॥ भन्ते ! आज के भोगवादी युग में भोग के प्रति कैसा दृष्टिकोण होना चाहिए ? | वत्स ! इस विषय में दो बातों का बार-बार चिन्तन करना चाहिए-भोग के प्रति आसक्ति की मात्रा कितनी है और भोग की मात्रा कैसी है ? कर्म से कौन बंधता है ? १००. बद्धं कर्माणि बन्नन्ति, रोगो गच्छति रोगिणाम् । अबद्धो न भवेद् बद्धः, विरागो नामयास्पदम ।। गुरुदेव ! कर्म-परमाणु कर्मबद्ध व्यक्ति को ही बांधते हैं और रोग रुग्ण व्यक्तियों को ही लगते हैं । ऐसा क्यों ? वत्स ! कर्म कर्म को खींचते हैं। जो कम से अबद्ध-मुक्त है, वह फिर कभी कर्म से बद्ध नहीं होता। इसी प्रकार रागरहित व्यक्ति में प्रतिरोधात्मक शक्ति प्रबल होती है। वह सहज स्वस्थ होता है। इसलिए उस पर रोग आक्रमण नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003161
Book TitleAlok Pragna ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages80
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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