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आलोक प्रज्ञा का
अभीप्सित मानता है, उसके लिए वह कर्म करता है और धर्म भी उसी के लिए करता है ।
मनुष्य के लिए इष्ट एक प्रकार का नहीं है और अनिष्ट भी एक प्रकार का नहीं है । उसका भौतिक स्वरूप निर्दोष नहीं होता । आध्यात्मिक स्वरूप ही विज्ञजनों द्वारा सम्मत हो सकता है । भगवान् महावीर ने यज्ञ और तीर्थ आदि का आध्यात्मिकीकरण किया था ।
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जन्म है कर्माधीन
५५. कर्माधीनं भवेज्जन्म, सुखदं दुःखदं तथा । सातसंवेदनं तद्वद्, असातस्याऽपि वेदनम् ॥
किसी का जन्म लेना स्वतन्त्र नहीं है वह कर्म के अधीन है । कोई जन्म सुख देने वाला होता है, कोई जन्म दुःख देने वाला होता है । कभी मनुष्य सुख का संवेदन करता है और कभी दुःख का संवेदन करता है ।
सत्य या भावविप्लव ?
५६. सत्यं बलयुतं यद्वा, बलवान् भावविप्लवः ? ज्ञानोपयोग सत्यं स्यादन्यो मोहचिदः क्षणे ॥
भन्ते ! सत्य बलवान् है अथवा भाव का विप्लव ? वत्स ! जिस क्षण ज्ञान का उपयोग होता है, उस समय सत्य बलवान् होता है । जिस क्षण मोह की चेतना जागृत होती है, उस समय भावविप्लव – क्रोध, मान आदि का भाव बलवान् होता है ।
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