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________________ आलोक प्रज्ञा का १७. इन्द्रियेणेव जानामि, बाह्य जगदिदं स्फुटम् । तानि सन्ति च वैरीणि, श्रद्धयं स्यादिदं कथम् ॥ भंते ! मैंने एक बात सुनी है कि इन्द्रियां हमारी शत्रु हैं । पर मैं इस बात को कैसे मानूं, क्योंकि इन्द्रियों के द्वारा ही मैं इस बाह्य जगत् को स्पष्टतया जानता हूं, फिर वे हमारी शत्रु कैसे? १८. आविष्टानि यदा तानि, रागद्वेषप्रभावतः । तदा तानि विपक्षाणि, नेतराणि महामते ! ॥ महामते ! तुझे इन्द्रियों को सापेक्षता से समझना होगा। वे अपने आप में शत्रु नहीं हैं। जब वे राग-द्वेष से आविष्ट होती हैं तब वे हमारी शत्रु बन जाती हैं। जब उनमें वह आवेश नहीं होता तब वे हमारी मित्र होती हैं। प्रस्थान में बाधा १६. पुद्गलेनावृतं जान, दर्शनं पुद्गलावृतम् । आनन्दः पुद्गलाच्छन्नश्चास्ति पौद्गलिकं वपुः ।। गुरुदेव ! हमारा योगक्षेम की ओर प्रस्थान क्यों नहीं हो रहा है ? इसमें कौनसी बाधा है ? वत्स ! पुद्गल इसमें सबसे बड़ी बाधा है। वही हमारे ज्ञान और दर्शन पर आवरण डाल रहा है, वही आनन्द को आच्छन्न कर रहा है । और क्या ? यह हमारा शरीर भी पुद्गलमय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003161
Book TitleAlok Pragna ka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages80
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Religion
File Size3 MB
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