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'क्या आपके सात सौ से अधिक शिष्य हैं?
'हां !'
'क्या आपको नींद आ जाती है?'
'मुझे तो बहुत अच्छी नींद आती है । '
आचार्यजी ने विस्मय से कहा- - 'बहुत अच्छी नींद आती है। मैं इसे नहीं मानता। काफी बातें की, किन्तु विश्वास नहीं हुआ । आचार्यजी पूछा - 'आपको नींद आती है ? '
उन्होंने इस संदर्भ में सुबह फिर आए और वही प्रश्न
तब होता है ध्यान का जन्म
गुरुदेव ने कहा- 'आप यह प्रश्न क्यों कर रहे हैं?' उन्होंने कहा- 'मेरे पांच-सात शिष्य हैं फिर भी नींद हराम हो जाती है और आपके सात सौ शिष्य हैं फिर आप मस्ती की नींद लेते हैं ।' गुरुदेव ने कहा - ' - इसमें मेरा नहीं, मेरी परम्परा का वैशिष्ट्य है । मेरे पूर्वज आचार्यों ने ऐसा शिक्षण का क्रम बनाया, ऐसी शिक्षा दी और वह शिक्षा निरन्तर चल रही है इसलिए हमें कभी सोचना नहीं पड़ता । एक परम्परा बन गई, मानसिकता बन गई, शिष्य इतने प्रशिक्षित हो गए कि पांच सौ एक स्थान पर इकट्ठे होते हैं, किन्तु आचार्य को कभी यह कहना नहीं पड़ता कि तुम वहां जाओ और यह काम करो । सारा काम विधिवत् और नियमबद्ध चलता है । सब अपने-अपने कार्यों के प्रति, दायित्वों के प्रति जागरूक रहते ।'
आचार्य ने कहा- 'यह तो बड़ी विचित्र बात है। मैं आपका संविधान देखना चाहता हूं।'
गुरुदेव ने कहा- 'आप उसे देखें । उसका आप अध्ययन करें । आचार्य भिक्षु ने साधु संस्था के लिए जो विधान बनाया और जयाचार्य ने जिस मनोवैज्ञानिक स्तर पर साधुओं और साध्वियों को प्रशिक्षित किया, प्रशिक्षण पाते - पाते आज दो सौ बरसों के बाद यह स्थिति बन गई है कि वह संविधान हृदयंगम हो गया है, प्राकृतिक और सहज बन गया है ।
संविभाग का निदर्शन
एक उदाहरण है आहार का । पहले ऐसा होता था - भिक्षा में जो आहार लाते, जितना जरूरी होता, पहले साधु ले लेते, बचा हुआ साध्वियों को दे देते । प्रश्न उठा- यह क्यों ? सबको बराबर हिस्सा मिलना चाहिए। साधु हो या साध्वी - आहार का संविभाग होना चाहिए । जयाचार्य ने नियम बना दिया - भिक्षा में जो भी आहार आयेगा, उसमें साधु-साध्वी दोनों का संविभाग होगा, प्राथमिकता किसी की नहीं होगी। वर्षों से परम्परा चल रही थी - भिक्षा में जो आए, उसमें से पहले साधु ले और शेष बचा साध्वियों को दे । यकायक इस परम्परा को बदलना कैसे मान्य होता ? इस नियम को स्वीकार
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