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________________ १८ तब होता है ध्यान का जन्म सुविधा को एकाधिकार न दें। इसका सम्यक् अंकन करें-मूल्य सुविधा का ज्यादा है या शांति का? यदि शांत मन से व्यक्ति सोचेगा तो पता चलेगा-सुविधा का जीवन में मूल्य है, किन्तु शांति को बेचकर सुविधा का कोई मूल्य नहीं है। एकांगी दृष्टि से यह न सोचें-भाई ! धन ही सब कुछ है, सत्ता और अधिकार ही सब कुछ है, धर्म और ध्यान कुछ नहीं है, कोरी बकवास है। एकांगी दृष्टि से सोचने वाले धर्म के लोग भी ऐसा कहते हैं-बस सारा जीवन धर्म में लगा दो, और कुछ मत करो। यथार्थ यह है-केवल धर्म से जीवन नहीं चलेगा और केवल धन से मन को शांति नहीं मिलेगी। दोनों का संतुलन और सामंजस्य होता है तभी जीवन अच्छा लगता है। समग्र व्यक्तित्व की भाषा हम अनेकांत के इस निष्कर्ष को स्वीकार करें-एक सामाजिक प्राणी कभी भीख मांगकर अपना जीवन नहीं चला सकता और एक सामाजिक प्राणी अशांति में झुलस-झुलस कर अपने जीवन को व्यर्थ नहीं गंवा सकता। यदि धन-सुविधा और मन की शांति-दोनों में सामंजस्य होता है तो एक समग्र व्यक्तित्व बनता है। ध्यान की शिक्षा के द्वारा ऐसे समग्र व्यक्तित्व का विकास होता है, जिसमें सुविधा के साथ-साथ मन की शांति का अटूट संबंध हो । यह ध्यान की एक उपलब्धि है। मैंने देखा-जिन लोगों के जीवन में ध्यान उतरा है, वे बड़े प्रसन्न रहते हैं, तनावमुक्त रहते हैं, तनाव की स्थिति होने पर भी तनाव में नहीं जाते। यह एक भ्रांति है कि तनाव की स्थिति में तनाव न आए, यह सम्भव नहीं है। वस्तुत: ध्यान के द्वारा जीवन की वह कला सीखी जा सकती है कि व्यक्ति काम करे, किन्तु तनाव न आए। वह खाए किन्तु खाने के साथ तनाव पैदा न हो। खाना भी तनाव का बहुत बड़ा कारण बनता है। भोजन में नमक थोड़ा ज्यादा हो गया, तनाव आ गया। नमक नहीं डाला गया तो तनाव आ गया। रसोई बनाने वालों को न जाने इन सबके लिए कितना सुनना पड़ता होगा। मनुष्य खाते समय शायद ज्यादा परेशान होते हैं। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि मन के अनुकूल खाना नहीं मिलता है तो थाली के ठोकर लग जाती है और लड़ाई-कलह भी हो जाती है। रसोई घर केवल पेट भरने का ही नहीं, कलह का भी छोटा-मोटा घर है। जैसे रसोई भोजन का आलय है, वैसे ही उसे कलह का आलय भी कहा जाए तो शायद अत्युक्ति नहीं होगी। ध्यान के द्वारा इस स्थिति का निर्माण हो सकता है कि खाना तनाव का हेतु न बने। व्यक्ति बात करे किन्तु तनाव का हेतु न बने । समस्या यह है-मन के अनुकूल बात होती है तो भी तनाव आता है और मन के प्रतिकूल बात होती है तो भी तनाव आता है। स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि बात में निहित सचाई को जान सकें, तनाव न आये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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