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तब होता है ध्यान का जन्म
कराई जाती। एक चरण के बाद दूसरा चरण रखना होता है, क्रमिक विकास करना होता है। जैसे-जैसे चरण आगे बढ़ते हैं, साधना आगे बढ़ती है, व्यक्तित्व का बदला हुआ रूप हमारे सामने आने लगता है
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हम इस सचाई को मानकर चलें - ध्यान के द्वारा व्यक्तित्व में परिवर्तन होता है किन्तु यदि जादुई डंडे की कल्पना से चलेंगे तो भ्रांति और निराशा बढ़ जाएगी। यह विकल्प उभरेगा- तीन वर्ष ध्यान किया, कुछ भी नहीं मिला, इसे छोड़ देना चाहिए । व्यवहार के क्षेत्र में आदमी निराश नहीं होता । अध्यात्म का ऐसा सूक्ष्म जगत है कि निराशा जल्दी आती है । लौकिक विद्या के अध्ययन में व्यक्ति कभी अनुत्तीर्ण हो जाता है तो पुनः परीक्षा देता है अथवा पूरक परीक्षा देता है, किन्तु निराश नहीं होता । धर्म के क्षेत्र में थोड़ी-सी असफलता मिलती है तो वह उसे छोड़ने की बात सोच लेता है । इसका कारण यही लगता है कि स्थूल जगत को आदमी शीघ्र पकड़ता है, सूक्ष्म जगत को नहीं । उसे जानने में कठिनाई होती है । ध्यान के द्वारा परिवर्तन होता है किन्तु दीर्घकालीन साधना के बाद होता है । यदि साधना लम्बे समय तक चले, निरतंर चले तो परिवर्तन निश्चित आयेगा । ध्यान की निष्पत्ति असंदिग्ध है, इसमें संदेह करने की कोई आवश्यकता नहीं है। जो नियम होता है, वह अपने ढंग से काम करता है । हम नियम को जल्दी खींचकर लाना चाहें, यह संभव नहीं है । कहीं-कहीं अपवाद हो सकता है किन्तु सामान्य नियम यह है - दीर्घकालीन साधना ही सिद्धि की जननी है ।
ध्यान और मन की शान्ति
ध्यान समग्र व्यक्तित्व के विकास का उपक्रम है। एक सामाजिक प्राणी का जीवन केवल कर्म से नहीं चलता । उसे रोटी की जरूरत है तो वह कृषि करता है, व्यापार करता है, किन्तु एक सामाजिक प्राणी का जीवन पैसे से अच्छा नहीं बनता । जीवन चलाना और जीवन अच्छा बनाना- दोनों बातें हो तो समग्र जीवन बनता है । धन से सुविधाएं मिल सकती हैं पर मन की शांति नहीं । साधना के द्वारा मन की शांति मिलती है पर धन नहीं । एक सामाजिक व्यक्ति को दोनों की जरूरत होती है। धन की जरूरत है सुविधा पाने के लिए, जीवन यात्रा को चलाने के लिए और धर्म की जरूरत है मन की शांति के लिए। वह जीवन अनुकरणीय होता है, जिसके पास जीवन चलाने के साधन भी हैं और मन की शांति भी है । आज का व्यक्ति टूटा हुआ-सा लगता है। कहीं धन बहुत है, मन की शांति नहीं है और कहीं मन की शांति है तो सुविधा के पर्याप्त साधन नहीं हैं। वह समाज स्वस्थ समाज माना जाता है, जहां जीवन चलाने के साधनों का अभाव भी न हो, धन का प्रभाव भी न हो, मन की अशांति भी न हो। दोनों का संतुलन होना चाहिए - आदमी जीवन की समस्या में भी उलझा न रहे और मन की
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