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तब होता है ध्यान का जन्म न पेंसिल है, न कॉपी है, न पुस्तकें है, तो स्कूल में जाने का अर्थ क्या होगा? ये सब कुछ हैं और इच्छा नहीं है तो भी स्कूल जाने का क्या अर्थ होगा? न आत्मा के प्रति रुचि है, न आकर्षण का केन्द्र बदला है तो फिर ध्यान की स्कूल में जाने का अर्थ ही क्या होगा?
हम ध्यान करने में अपना मूल्यवान समय लगाएं, उससे पहले यह अवश्य सोचें । आज का आदमी इतना व्यस्त है कि उसे मरने की भी फुर्सत नहीं है। एक बार मौत भी आए तो वह कहेगा-दो घण्टा ठहर जाओ। दो नम्बर के खातों की ठीक व्यवस्था कर देता हूं, जिससे पीछे वालों को कठिनाई न हो।' इतना व्यस्त आदमी ध्यान में समय लगाये तो उसका उपयोग ठीक होना चाहिए। वह तभी सम्भव है जब हम इन सारे पहलुओं को समझकर ध्यान में प्रवेश करें।
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